महबूब
जूम गूगल मीट पे
क्लास चल रही है |
नेटवर्क भी सही नहीं,
फिर भी बात हो रही है|
मोर मोरनी बिछड़ गए,
राधा बन घर रो रही|
है गरीबी की मार से,
खुद फोन नहीं ले पा रही|
स्वाभिमान नहीं वह छोड़ रही,
प्रेमी से ना कुछ बोल रही|
अब गूगल जुम पर देख देख कर,
रो रो कर जीवन गुजार रही|
करके सिंगार सभी वह आती है,
प्रेमी को वह देख रही है|
हाय गरीबी हाय कोरोना,
खुद को वह धिक्कार रही है|
मन को वश में करके, .
करती खूब पढ़ाई है|
सबके लिए वह समय है देती,
प्रथम वरीयता पढ़ाई को देती है
गरीबों की व्यथा को समझती सुंदर रचना
समसामयिक आधुनिकता भरी कविता
बहुत सुंदर
अतिसुंदर
रचना स्तरीय है