कविता :आओ जियें जिन्दगी ,बन्दगी के लिए

पता नहीं किस बात पर इतराता है आदमी
कब समझेगा अर्थ ढाई आखर का आदमी
भूल बैठा है आज वो निज कर्तव्य को
खून क्यों मानव का बहाता है आदमी
क्यों शब्दों के बाण से
औरों का दिल दुखाता है आदमी
“जियो और जीने दो “कब समझेगा ये आदमी
खुद से क्या भगवान से है बेखबर
आज आस्था के मंदिर गिराता है आदमी
एक दूजे से बाबस्ता है हर आदमी
सोंचकर कल की मरता है आज आदमी
आज धर्म के हिस्सों मैं बंटा है आदमी
जाति वर्ण की चक्की में पिस रहा है आदमी
है नहीं उसे संतोष छूकर के फलक को
नर्क जीवन को बना रहा है आदमी
क्यों किसी को अच्छी नहीं लग रही मेहनत की कमाई
पाप के निवालों को शौक से खा रहा है आदमी
जब सुख में होता है ,तो ईर्ष्या करता है आदमी
और उपदेस दिया जाए ,तो मुंह मोड़ लेता है आदमी
ये लूट ,हत्या अपहरण किसके लिए
जब अंत में ,कुछ न लेके साथ जाता है आदमी
‘प्रभात’ थोड़ी सी जमीन ही तो चाहिए बाद में
फिर जमीन के वास्ते क्यों लड़ रहा है आदमी
ये रूपया पैसा काम नहीं आएगा हमेशा
फिर क्यों मोह रूपी गठरी ढ़ो रहा है आदमी
आओ मिल कर जला दें ख़ुशी के दिये
कुछ चमन के लिए कुछ अमन के लिये
आदमी आदमी से मोहब्बत करे
आओ जियें जिन्दगी ,बन्दगी के लिए …..

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