ख़ुमार
तेरे दीवानों में नाम मेरा भी शुमार न हो
ये कैसे मुमकिन है तुमसे मुझे प्यार न हो।
एक लम्हा भी ऐसा मेरा गुज़रता नहीं,
कि मैं सोचूँ तुम्हें और मुझे ख़ुमार न हो।
मेरी वो रात बहुत बदनसीब होती है,
जिस रात ख़्वाब में मुझको तेरा दीदार न हो।
डूब के दरिया में भी कोई प्यासा ही मर जाये,
ऐ ख़ुदा कोई इस तरह भी लाचार न हो।
मेरी नसीहतों की नहीं कोई भी परवाह इसको
कि दिल किसी का इतना भी बेकरार न हो।
©अनु उर्मिल ‘अनुवाद’
वाह भाई वाह।
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ
Bahut khoob