औरतों के हिस्से में उसका इतवार नहीं आता

May 25, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

साथ चलते हैं।

May 25, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

 

साथ चलते हैं।

चल साथ चलते हैं।
मंज़िल की छोड़ ना!!
इस बार हम राह चुनते हैं।
गुज़रते जायेंगे लम्हें
हर लम्हों को कहीं
किसी भी तरह क़ैद करते है
चल! साथ चलते हैं।

हाथ पकड़ लेते हैं।
हो सकता है तकदीर में
कुछ और लिखा है
तो हम भी गुस्ताख़ी करते है
एक दूसरे की लकीरों को
कुरेद लेते हैं।
चल! साथ चलते हैं।

जहाँ तक भी हो
जितना भी हो
जी भर लेते हैं
चल ना! बस साथ चलते हैं।

“कोई ओर नहीं कोई छोर नहीं”

May 22, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

“कोई ओर नहीं कोई छोर नहीं”

मैं चाँद नहीं
वो प्रचलित तारा ध्रुव भी नहीं
मेरे दिखने का कोई दिन नहीं
पूर्णिमा नहीं अमावस्या भी नहीं
मैं कई प्रकाश वर्ष दूर
आकाश का तारा हूँ
जिसके होने का एहसास तो है
मगर जिसकी रौशनी
अब तक यहाँ पहुंची ही नहीं
वो तारा ही हूँ जो गिनती में
तो आ जाता हूँ, कभी कभार
मगर मैं उस गिनती की शुरुआत नहीं।

मैं “स्मृती में जमा” नहीं
मैं “याद में रमा” नहीं
किसी पल का विलाप नहीं
मै हूँ किसी बात का उदाहरण
मगर किसी बात का अभिशाप नहीं

मैं समंदर नहीं जो गहरा हो
मैं ताल नहीं जो ठहरा हो
मैं गिरी ओस हूँ घांस की चादर में
मैं हूँ नमी सा हवाओं में
मगर मैं आद्र नहीं मैं उष्ण भी नहीं

मैं उदय नहीं मैं अस्त नहीं
मैं दुख नहीं मैं जश्न नहीं
मैं किसी तिथी में स्पष्ट नहीं।
मैं किसी विषय का कष्ट नहीं।
मैं पर्व नहीं मैं महफ़िल नहीं
मैं वो क्षण हूँ जो पहले की
याद सा फिर ज़हन में आ जाये
मैं वो शंका भी हूँ जो ये कह दे
कि कहीं ये वही कमबख्त डेजावू तो नहीं

मैं पतझड़ नहीं सावन भी नहीं
मैं साफ़ हूँ मगर पावन नहीं
मैं सन्नाटा नहीं मैं शोर नहीं
मैं बारिश के दौरान
वो कभी कभार की धूप हूँ
मैं इंद्रधनुष सा दिख कर ओझल
जिसका कोई ओर नहीं कोई छोर नहीं

~अम्बरीश

सो जाते हैं हम

May 22, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

 

सो जाते हैं हम

अधूरेपन की थपकी
उधेड़बुन वाली लोरी
कल परसों की सिसकी
और किसी दी हुई हिचकी
लिए सो जाते हैं हम

सपनों की तकिया
सुकून की रजाइयाँ
अनजान से सन्नाटे
और अटकती सांसो के ख़र्राटे
लिये सो जाते हैं हम

~अम्बरीश

यपूर्व की हवाएँ

May 18, 2016 in Other

 

पूर्व की हवाएँ

जब भी बदलता है मौसम
वसंत के बादऔर ग्रीष्म के पहले
का लंबा अंतराल
तो सूर्य के विरुद्ध जा कर
पुरबवैयाँ चलती हैं।

गाँव में कहावत है
ऐसे मौसम में
मत सोया करो बाहर
ये पूरब की हवाएँ हैं ना
पुराने दर्द उभार देती हैं
इन हवाओं की सरसराहट सुगंध
पिछली यादों में घोल देती हैं।
कहा जाता है इन हवाओं में
सूखे पुराने यादों के पत्ते उड़ कर
हमारे ही आँगन में जमा हो जातें हैं
उन पत्तों की महक को ढकेलती हुई
घुसजातीं है हमारे ही चौखट
ये पूरब की हवाएँ
रात में किसी पुरानी धुन
सी घुस जातीं हैं ये हवाएँ
भूली यादों को फिर याद
दिला जातीं है ये हवाएँ।
हम कहते रह जातें है
अच्छा नहीं लग रहा
क्यूंकी मौसम बदल रहा है
मगर सच तो यह है
इन हवाओं में घुल कर
तू खुद बदल रहा है।

बच कर रहना
पूरब की हवाएँ हर साल आतीं हैं
पुराने दर्द उभार जातीं हैं

~अम्बरीश शुक्ला

महीने का अंत

May 18, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

ज़िन्दगी गरम तवे सी हो रखी है।

ऐसा-वैसा तवा नहीं।

महीने भर खर्चों की आग में 
सुलगता तवा!!

गरम तवे को राहत देने

महीने भर कोई न आता है।

महीने के अंत में दफ्तर से

राहत के नाम पर “तनख्वाह”

पानी की छींट

जैसी कुछ आती है।

सन्न सन्न की आवाज़ कर

भाप बन उड़ जाती है।

ये तनख्वाह छींट भर ही क्यों आती है।

एक दिन में क्यों स्वाहा हो जाती है।

तवा धीरे धीरे धधक रहा है।

ताप के मारे पता चला किसी दिन

ये पिघल रहा है।

हे! तनख्वाह तुम बारिश सी कब बरसोगी?

कब तुम महीने का अंत देख

बरसने को तरसोगी।

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