by Raju

तेरे बिन गुजारा नहीं

July 31, 2020 in ग़ज़ल

रोज मिलने के वादे तोड़ते हो जो तुम
बात तेरी ये मुझको गवारा नहीं।

बात ही बात पे रूठते हो जो तुम
जानते हो तेरे बिन गुजारा नहीं।

रोज अपनी गली देखते हो मुझे
आशिक हूँ तेरा पर आवारा नहीं।

थोड़ा नजरें इनायत फरमाओ तुम
गैर नजरों के खातिर सँवारा नहीं।

मेरी एकलौती चाहत अरमान तुम
डोले हर फूल “राजू” वो भंवरा नहीं।।

~राजू पाण्डेय
बगोटी (चम्पावत)

by Raju

टूटते क्यों नहीं

July 31, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

टूटते क्यों नहीं
सत्ता के
पाषाण ह्रदय तटबंध
उन आँसुओं के सैलाब से
जो बहते है गुमसुम
बच्चों की खाली थाली देखकर
जब चीख उठते हैं पैरों के
बड़े बड़े लहूलुहान चीरे
फटे कंधे साहस दिलाते
फिर
कल की उम्मीद में सो जाते है
पीकर
उन्हीं अश्रुओं को …

by Raju

याद रहे

July 31, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

पार्थ!
तुम भटक रहे हो क्या?
उस धर्म के मार्ग से
जिस मार्ग का अनुसरण करने का पाठ
आप पढ़ाते रहे हैं
वनवास के समय अपने प्रवचनों में …

वो रण वांकुरे, जिन्होंने
तुम्हारा वनवास मिटाने और
तुम्हें सत्ता तक पहुँचाने के रण को
लड़ा है धर्म युद्ध समझ
थोड़ा विस्मित है
आता देख सुन
तेरा नाम सत्ता के षडयंत्रो में …

तुम्हें सिर्फ याद रखनी होगी
वो मछली की आंख
जिसकी केंद्र में थी परिकल्पना
एक सक्षम, समर्थ, समृद्ध राष्ट्र की
सबका साथ सबका विकास की
याद रहे!
भूला दिये जाते रहे है
अक्सर, खुद की इमेज चमकाने वाले
सिर्फ देश चमकाने वालों को ही
लिखता है इतिहास स्वर्ण अक्षरों में …

~राजू पाण्डेय
बगोटी (चम्पावत)

by Raju

ये सांप

July 11, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

सांप!

मारना नहीं चाहिए था
ये वाला
वो बता रहे हैं
ये पानी वाला सांप था
जानता था
कितने सांप, मगरमच्छ
और है उस तालाब में

उसे रखना चाहिए था
एक वीआईपी वाले बिल में
बाकी सांपों की तरह
रोज पिलाते दूध

वो भी बताता बाकी
पालतू सांपों की तरह
उन तालाबों के राज
जहां पल रहे हैं
ना जाने और कितने
मगरमच्छ और सांप

नहीं तो कभी काम आता
डंसवाने के
फिर सपेरों को…

~ राजू पाण्डेयसांप

by Raju

रिश्ता

July 8, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

रिश्ता तो एक ही है
तुमारा और मेरा उनसे
तुमारे पास जमीन है ना!
और
वो उसी का भाव जानते है।

~ राजू पाण्डेय

by Raju

शहर में भी गांव हूँ मैं

July 8, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

भीड़ है बहुत दिखता तन्हा हर इंसान हैं
एक दूजे से मुँह फुलाये खड़े मकान हैं
सूरज को भी जगह नहीं झांक पाने की
फुर्सत किसे, दूजे की देली लांघ जाने की
फिर भी पड़ोसी से पूछता हाल हूँ मैं
शहर में भी गांव हूँ मैं।

पड़ती बड़ी गर्मी, बूंद को पंछी तरसते हैं
बड़ी मुश्किल यहाँ, कभी बादल बरसते हैं
पपीहा कहाँ, जिसको तलब हो बूंद पाने की
दिखती नहीं बच्चों में हरसत, भीग जाने की
फिर भी बनाता कागज की नाव हूँ मैं
शहर में भी गांव हूँ मैं।

पकवान है विविध, क्या आलीशान शादी है
ट्रैफिक जाम में फसी, सुना बारात आधी है
लगी एक होड़ सी है, टिक्का पनीर पाने की
जल्दी पड़ी है सबको खा कर के जाने की
बारात के आने के इंतजार में हूँ मैं
शहर में भी गांव हूँ मैं।

सब सोचते है उसका, ओरौ से मुकाम ऊंचा है
दौलत नहीं है पास जिसके, इंसा भी नीचा है
लगी एक दौड़ सी है, बस दौलत को पाने की
किसी को फिक्र ना “राजू”, दिलों के टूट जाने की
सबको दुवा सलाम करता हूँ मैं
शहर में भी गांव हूँ मैं।

~राजू पाण्डेय
ग्राम – पो. बगोटी (चम्पावत) – उत्तराखंड
यमुनाविहार – दिल्ली

by Raju

आंगन के पाथर

July 7, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

पैर जैसे ही पड़े आंगन में बरसों बाद
एक एक पाथर मचल उठा, सुबक पड़ा
उसके आने के अहसास से
ये तो वही पैर थे जो बरसों पहले
बच्पन में दिनभर धमाचौकड़ी करते थे
आंगन के इन पाथरो पर
और कभी कमेड या छोटे पत्थर से
लिखते इन पर अ आ इ ई, १ २ ३ ४
कभी पिठ्ठू, कंचे, गिल्ली डण्डा खेलते
कभी बैट बॉल घुमाते थे इसी आंगन में
कभी ईजा के साथ लीपने में लग जाते
गाय के गोबर से नन्हे हाथों से
तुरन्त उखाड़ फेकते थे
कहीं भी घास उग आये आंगन में
एक तरफ़ सूखते रहते थे अनाज और दालें
और एक कोने में बँधी होती थी दुधारू गाय
फिर अचानक बंद हो गयी पैरों की चहलकदमी
और अकेले रह गए
बंद मोल के साथ आंगन के पाथर
धीरे धीरे उगने लगी घास और
हावी हो गयी कटीली झाड़ियां
दरवाजे में लगे संगल ने भी निराश हो
छोड़ दिया था दरवाजे का साथ
दीमक लगा दरवाजा खड़ा था किसी तरह
शायद उनके आने की प्रतीक्षा में
उसके पैरों के साथ कुछ और पैर थे
कुछ नये पैर थे तो कुछ पुराने
पाथर जो पैर पैर से वाकिफ थे
बैचेन हो गये उन पुराने पैरों को ना पाकर
जो अचानक गायब हुये थे इन्हीं पैरों के साथ
शायद वो फिर लौट कर ना आये
पाथर खुद को संभालते बुदबुदाये
लौटकर आने वालों में कुछ नन्हें पैर भी तो है
शायद फिर से लौट आये वो पुरानी रौनक
और फिर शुरू हो जायें इस आंगन में
पिठ्ठू, कंचे, गिल्ली डण्डा, बैट बॉल के खेल
फिर सजाने लगे हम पाथरों को
लिखकर अ आ इ ई, १ २ ३ ४

New Report

Close