शहर में भी गांव हूँ मैं
भीड़ है बहुत दिखता तन्हा हर इंसान हैं
एक दूजे से मुँह फुलाये खड़े मकान हैं
सूरज को भी जगह नहीं झांक पाने की
फुर्सत किसे, दूजे की देली लांघ जाने की
फिर भी पड़ोसी से पूछता हाल हूँ मैं
शहर में भी गांव हूँ मैं।
पड़ती बड़ी गर्मी, बूंद को पंछी तरसते हैं
बड़ी मुश्किल यहाँ, कभी बादल बरसते हैं
पपीहा कहाँ, जिसको तलब हो बूंद पाने की
दिखती नहीं बच्चों में हरसत, भीग जाने की
फिर भी बनाता कागज की नाव हूँ मैं
शहर में भी गांव हूँ मैं।
पकवान है विविध, क्या आलीशान शादी है
ट्रैफिक जाम में फसी, सुना बारात आधी है
लगी एक होड़ सी है, टिक्का पनीर पाने की
जल्दी पड़ी है सबको खा कर के जाने की
बारात के आने के इंतजार में हूँ मैं
शहर में भी गांव हूँ मैं।
सब सोचते है उसका, ओरौ से मुकाम ऊंचा है
दौलत नहीं है पास जिसके, इंसा भी नीचा है
लगी एक दौड़ सी है, बस दौलत को पाने की
किसी को फिक्र ना “राजू”, दिलों के टूट जाने की
सबको दुवा सलाम करता हूँ मैं
शहर में भी गांव हूँ मैं।
~राजू पाण्डेय
ग्राम – पो. बगोटी (चम्पावत) – उत्तराखंड
यमुनाविहार – दिल्ली
एक दूजे से मुँह फुलाये खड़े मकान हैं
Nice
सादर आभार👏
अच्छा हुआ जो हम रह गये पीछे
इस होड़ की होड़ में
जी, शुक्रिया 💐
कुछ वर्तनी की त्रुटियाँ हैं।
बाँकी
Nice poetry
nice
दहलीज
बहुत खूब
सटीक
बहुत बढ़िया
वर्तनी अशुद्ध है लेकिन भाव पांच बहुत ही मजबूत है कवि ने उत्तम ऑफ माय देकर तथा रूपक अलंकार का प्रयोग किया है
सुंदर भाव