ए जीनेवाले सोच जरा….!
ए जीनेवाले सोच जरा….!
मरने के लिए जीते हैं सब,
फिर भी मर मर कर जीते हैं.
यहाँ कभी न मन की प्यास बुझी,
प्यासे ही सब रह जाते हैं.
ए जीनेवाले सोच जरा,
ऐसा जीना क्या जीना है,
गर मर मर कर यूं जीना है,
तो जीकर भी क्या करना है.
जग जीवन के जन्जालों मे,
ना समझ सका ख़ुद को मानव,
चिंताओं व्यर्थ व्यथाओं की,
गाथाओं मे खोया मानव.
कुछ ऐसे दीवानेपन में,
मेरे भी जीवन मे इक दिन,
जागा जीवन का अर्थ नया,
जब किस्मत से अनजाने मे,
‘ ख़ुद ’ को खोया,
सबकुछ पाया……….!
विश्व नन्द.
nice poem विश्व नन्दजी
Thank you so very much Panna JI . Aapkaa protsaahan bahut aanand daayi …! 😉
sach me sochne pe majboor kar deti he aapki kavita..
यहाँ कभी न मन की प्यास बुझी,
प्यासे ही सब रह जाते हैं…..bht khobb
NICE
वाह बहुत सुंदर
Good
वाह वाह, अति सुंदर
Atisundar