क्या हुआ है शहर को आख़िर

आप सब की नज़र को आख़िर ,
क्या हुआ है शहर को आख़िर .

नफरतों की लिए चिंगारी ,
लोग दौड़े कहर को आख़िर .

चाँदनी चौक की वह दिल्ली ,
आज भूखी गदर को आख़िर .

मजहबी क्यों सियासत करके ,
घोलते हो ज़हर को आख़िर .

जिस्म से दूर रहकर भरसक ,
रूह तड़पी सजर को आख़िर .

ज़िन्दगी का हिसाब क्या दें ,
जिंदगी भर बसर को आख़िर .

ऐ ज़मानों वफ़ा मत परखो ,
फैशनों में असर को आख़िर .

खामखाँ प्यार करके ‘रकमिश’ ,
रौंद बैठे जिगर को आख़िर .

-रकमिश सुल्तानपुरी

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