गाँव मातृ-पिता समाज से बना ।।
होत धन के तीन चरणः-
दान प्रथम अतिउत्तम है ।
द्वितीय भोग स्वयं बचाव है ।
विनाश तृतीय चरण है ।
होत धन के तीन चरण ।।
यदि धन का व्यय मौलिक आवश्यकता पर हो,तो यह मार्ग अतिउत्तम है ।
और यदि धन का मालिक भोग-विलास में रमा हो,तो यह राह अति निंदनीय है ।
ये नहीं कर सकते धन का दान, क्योंकि ये है स्वभाव है दुराचार ।
इसी तरह होते है, दुर्जनों के धन का नाश और ये व्यर्थ ही रोते है दिन और रात ।
होत धन के तीन चरण ।।
धन-धन करते-फिरते हैं, धन के लोभी आज ।
ऐसे-तैसे धन संचय करते है, आज धन के काले संचयदार ।
जब भर जाते है, इनके काले कोठे तब करते है, ये धन का सर्वनाश ।
और व्यर्थ ही गँवाते है ऐसे लोग धन के पीछे दिन और रात ।
होत धन के तीन चरण ।।
हो सदुपयोग धन का तो मिलते है, जहां में इनके सत्फल ।
दुरुपयोग किया है धन का तो मिलते है, जहां में इनके बुरे फल ।
कर्म-कर्म पे लिखा है, हर कर्म के फल ।
सोच-समझ के हर कदम उठाना मानव!
क्योंकि हर फल के पीछे होंगे तेरे अच्छे-बुरे कर्म ।
होते धन के तीन चरण ।।
ऐ! सोच जरा मानव तुम!
मानव होके दानवता के पथ पे आगे भागता क्यूँ!
बदल उन स्वभावों को, छोड़ निजी स्वार्थों को ।
दे दान दीन-दुःखियों को, और सुफल कर अपने मानव-जन्म को ।
होत धन के तीन चरण ।।
धन-धन करता-फिरता है, मानव क्यूँ तु हरपल?
धन नहीं जायेंगे तेरे संग, इसीलिए दान कर तु धन ।
और यहीं जायेंगे तेरे संग, क्योंकि यहीं है मानव का सत्कर्म ।
होते धन के तीन चरण ।।
दान कर–2 मानव तु दान कर, व्यर्थ मत गँवा अपने धन को ।
भूल निज स्वारथ को, भूल भौतिक आवश्यकता को ।
भूल जा उन सारी बेमतलब के खर्चें को, और कम करे अपनी जेब खर्चें को ।
दान कर–2 मानव तु दान कर, व्यर्थ मत गँवा अपने धन को ।
होत धन के तीन चरण ।।
विकास कुमार
विकास जी एक साथ इतनी सारी और इतनी बड़ी बड़ी कवितायें डालकर इस मंच को भर देने की बजाय, कुछ अध्ययन में समय लगाओ प्लीज, आप बहुत अशुद्धियाँ लिख रहे हैं, कम लिखिए शुद्ध लिखिए,
हम तो इतना ही कहेंगे कि भले ही आप चार लाइन लिखो लेकिन हिंदी को शुद्ध रूप में लिखो।
विकास सर आपकी कविता तारीफ़ ए काबिल है। मगर यह प्रयास करे कि, आप जो कुछ भी कहना चाहते हैं ८ या १२ पंक्तियों में ही कहने के प्रयास करे। क्योंकि समय का काफी अभाव है।
विकास जी यहां पर सभी सदस्य पथ-प्रदर्शक एवं ज्ञानी विद्वान हैं सबकी बातों का अनुसरण करना चाहिए आपको भले थोड़ा लिखो मगर प्रभावमयी एवं शुद्ध लिखे
हमको भी बहुत कुछ सीखना है अभी आप भी सीखें। और गलतियों पर ध्यान दें
जय राम जी की ।।
जो व्यकित खूद को ग्यानी पंडित कहता है, वह कुछ भी नही है, सिवाय एक अहंकारी व्यक्ति के ।।
मक्खी भिन भिन करती थी कानों के पास। कहा बैशाखनन्दन ने क्या, सुन्दर है राग अलाप।।
जब आप एक भौतिक व्यक्ति की निन्दा करते है तो वह व्यक्ति आत्महत्या करने की प्रयास करता है । लेकिन जो व्यक्ति आध्यात्मिक स्तर का होता है, उसे मान-हानि का कोई फर्क ही नहीें पड़ता है सर जी ।।
यह तन है विष की बैलिरी गुरू अमृ़त की खान।
सीख दियो जो गुरू मिले वो भी सस्ता जान ।।
संत कबीर ।।