नवसंवत्सर को नज़राना
फाल्गुन की ब्यार में,
कोयल की थी कूक
गिरते हुए पत्तों की सरसराहट
उर में उठाती थी हूक॥
जीवंत हो उठी झंझाएँ
मानो कुछ कहती थीं
रह-रहकर आती चिड़ियों की चहचहाहट
निज क्रंदन का राग सुनाती थीं।
बलखाती-लहराती वृक्षों की डाली,
मानो मुझे बुलाती थीं।
सन्नाटे उस उजली धूप के,
स्पष्ट सुनाई देते थे
झिलमिलाती किरणें आ पत्तों के बीच से,
प्रकाशमय वर्णों को कर जाती थीं,
त्वरित-घटित निज गाथाओं
याद मुझे दिलाती थीं
मानव-उर के निजी क्रंदन का,
दुर्लभ अनुभव मुझे कराती थीं॥
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