फोटो पर कविता प्रतियोगिता :- शीर्षक – “सुनों!!”
!सुनों!
सुनो! ये जो दरिद्र मजदूर हैं, वास्तविकता में यही तो मजबूर हैं|
क्रूरता की पराकाष्ठा तो देखो, अब तक ये कुटुंब से दूर है|
भूतल से नभतल तक यह जो हाहाकार मचा,
प्रकृति ने शुरू अपना तांडव जो किया,
मनुष्य के मुँह पर जोरदार तमाचा दिया,
यह जो प्रकृति का बरसा है कहर,
हकीकत में मनुष्य द्वारा ही दिया गया है जहर|
सुनो! ये जो दरिद्र मजदूर हैं, वास्तविकता में यही तो मजबूर हैं|
प्रश्न यह मन में उठता है..
क्यों हर परिस्थिति में मजदूर ही पिसता है,
समाजसेवा के यहाँ पर्चे फटने लगे,
पर डोनों में तो करोना ही बटने लगे,
गाँव पहुँचने की मन में लिए आस,
पहुँच गए रेल गाड़ी के पास|
सुनो! ये जो दरिद्र मजदूर हैं, वास्तविकता में यही तो मजबूर हैं|
कोरोना का राक्षस बन बैठा सबका भक्षक,
उल्लास न कहीं दिखता ,मातम ही पैर पसारे टिकता,
इस महामारी के आगे सब अस्त्र-शस्त्र पड़े धराशाही,
न रहा अब कोई किसी का भाई..
इन्हें तो बस गाँव की याद आई..
किस बात का रोना गाते हो, तुम ने जो बोया वही तो पाते हो|
सुनो! ये जो दरिद्र मजदूर हैं, वास्तविकता में यही तो मजबूर हैं|
अस्तित्व अपना बचाने को, घर वापस अपने जाने को|
पोटली के साथ मुँह को बाँधे बैठे हैं खिड़की के सहारे,
आँखों के साथ हाथ भी बाहर झाँके, गाँव-गाँव ही अब पुकारे|
सुनो! ये जो दरिद्र मजदूर है, वास्तविकता में यही तो मजबूर हैं|
क्रूरता की पराकाष्ठा तो देखो अब तक ये कुटुंब से दूर हैं|
स्वरचित कविता
रीमा बिंदल
अच्छा
धन्यवाद!!
वाह….अतिसुंदर 👏👏
🙏🙏
Bhut sunder 👏👏👏👏
बहुत ही सुंदर भाव और कविता
सुन्दर
धन्यवाद 🙏🙏😊 देवेश जी, पूनम जी और प्रिया जी
आपके प्रोत्साहन पूर्ण शब्दों से मनोबल बढ़ा|🙏🙏
हृदय की गहराइयों से आपका धन्यवाद विनय जी🙏💐
वाह
Congratulations REEMA Ji
👏👏
महाशय ,
*आपको अवगत कराना चाहूँगी कि हमारे क्षेत्र (उत्तर प्रदेश) में “दोनों” को “डोनों” ही कहा जाता है| (लंगर अथवा मंदिर में प्रसाद के साथ में बटने वाली पत्तों से बनी कटोरी)
*(……..) का प्रयोग मैंने अपनी बात को जारी रखने हेतु संकेत रूप में दिया है|
मैं हिंदी की अध्यापिका हूँ, मुझे विराम चिह्नों का प्रयोग करना कुछ हद तक आता है|🙏
आपकी प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद|🙏🙏
मैंने आपकी प्रतिक्रिया को सकारात्मक रूप से लिया है, इसे अन्यथा न लीजिएगा|🙏
रीमा जी आप सही हैं।
मास्टर साहेब भाव और प्रयोग को समझ नहीं सके।