भाव जगते नहीं क्यों मदद के
जी रहे हैं स्वयं हम
दिवास्वप्न में,
खुद को भूले हुए हैं
बड़े मग्न हैं।
पीठ संसार के दर्द
से फेरकर,
आँख सबसे चुराकर
बड़े मग्न हैं।
ओढ़ कर तीन कम्बल
पसीना हुआ,
उस तरफ वो निराश्रित
पड़े नग्न हैं।
भाव जगते नहीं क्यों
मदद के कभी
अश्व मन के
किधर आज संलग्न हैं।
पास में है सभी कुछ
नहीं तृप्ति है,
गांठ मन में हैं
भीतर से उद्दिग्न हैं।
तब भी सोये हुए हैं
दिवास्वप्न में,
यूँ ही पल पल गंवाते
दिवास्वप्न में।
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Geeta kumari - December 21, 2020, 11:57 am
गरीबों के लिए कोमल भाव जागृत करती हुए कवि सतीश जी की बहुत ही सुंदर रचना
Satish Pandey - December 29, 2020, 10:45 pm
बहुत बहुत धन्यवाद
Virendra sen - December 21, 2020, 2:28 pm
बहुत सारगर्भित अभिव्यक्ति
Satish Pandey - December 29, 2020, 10:45 pm
बहुत धन्यवाद
Virendra sen - December 21, 2020, 2:41 pm
धरती पर रहने वाले अमीरों और गरीबों के भाव प्रदर्शित करती रचना। बहुत खूब लिखा है आपने पांडेय जी।
Satish Pandey - December 29, 2020, 10:46 pm
बहुत बहुत आभार
Antariksha Saha - December 21, 2020, 3:06 pm
खूब कहा
Satish Pandey - December 29, 2020, 10:46 pm
बहुत बहुत धन्यवाद
Pragya Shukla - December 21, 2020, 7:14 pm
बहुत ही लाजवाब रचना
Satish Pandey - December 29, 2020, 10:47 pm
बहुत धन्यवाद
Pt, vinay shastri 'vinaychand' - December 21, 2020, 8:52 pm
अतिसुंदर भाव
Satish Pandey - December 29, 2020, 10:47 pm
सादर आभार
Saurav Tiwari - December 21, 2020, 9:15 pm
Lajawab 😊
Satish Pandey - December 29, 2020, 10:50 pm
धन्यवाद
Sandeep Kala - December 21, 2020, 9:16 pm
बहुत ही सुंदर पंक्तियां
Satish Pandey - December 29, 2020, 10:50 pm
धन्यवाद जी