माटी का कर्ज

अनजानी राहों पर बिन
मकसद के मैं चलती हूँ
जबसे तुम से जुदा हुई हूँ
तनहाईयों में पलती हूँ
कब आओगे तुम प्रियवर
अब और सहा नहीं जाता है
बिन तुम्हारे जीवन मुझसे
अब न काटा जाता है
तुम से ही मेरा ये दिन है
तुम से ही ये रैना है
तुम बिन सूनी ये दुनिया
तुम बिन बैचेन ये नयना
भीगी पलकें भीगे नैना
भीगी दामन चोली है
ऑख़ों का काजल
माथे की बिंदिया
हंस – हंस कर तुम्हें बुलाने हैं
सुनो प्रियवरम
मेरी भी मजबूरी है
यहाँ सरहद पर
जंग भारी छिड़ी है
अपने वतन की खातिर
जो कसमें हमने खाई हैं
उस माटी का कर्ज
चुका कर आता हूँ
जब भी तुम बैचेन रहो
उन यादों मैं जीना सीख लो
जो वक्त गुजारा हमने संग में
उन यादों मैं जीना सीख लो
फिर न तनहाईया
न बैचेनी तुम्हें सतायेगी
भारत माता पर यह
कुर्बानी बेकार नहीं जायेगी

। । जयहिंद ।।
– रीता अरोरा

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