मानव तन
कुकडू -कडू कुकडू -कडू करता रहूँ , करता रहूँ
मन में सोच रहा,
मैं भी तो एक जीव हूँ,
बांग से जगाता हूँ,
महफ़िलों की शान हूँ,
मैं भी तो एक जीव हूँ,
जल की मैं रानी हूँ,
भून दी जाती हूँ,
मैं भी तो एक जीव हूँ,
मैं-मैं करती हूँ,
मन की भोली-भाली हूँ,
मैं भी तो एक जीव हूँ,
मन में सोचूं कभी मानव तन पाऊँ
जब तेरे गर्भवती विनायकी के छल को देखूं
ऐसा ही कर्म करूँ तो कभी ना मानव तन पाऊँ
कुकडू -कडू कुकडू -कडू करता रहूँ ,करता रहूँ।
सुन्दर
धन्यवाद
वाह सत्य कथन, लाजबाब कविता। इंसान जीवों को रौंध डालता है। आपकी अभिव्यक्ति काबिलेतारीफ है।
सादर आभार
भाई वाह
धन्यवाद
बेहतरीन
धन्यवाद
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति