मैं पानी का आईना हूं
टूटता हूं फिर से जुड जाता हूं
मैं पानी का आईना हूं
घर से लिये हूं रात का सूरज
कहने को मिट्टी का दीया हूं
गले गले है पानी लेकिन
धान की सूरत लहराता हूं
रस की सोत बनेगी दुश्मन
गन्ने सा चुप सोच रहा हूं
टूटता हूं फिर से जुड जाता हूं
मैं पानी का आईना हूं
घर से लिये हूं रात का सूरज
कहने को मिट्टी का दीया हूं
गले गले है पानी लेकिन
धान की सूरत लहराता हूं
रस की सोत बनेगी दुश्मन
गन्ने सा चुप सोच रहा हूं
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nice poem kapil bro
thanks mohit bhai
Kapil जी , इस कविता की हर लाइन में अपने होने और न होने को साकार किया गया है और जिस तरह से उसे आपने बिछाया है वो बेहतरीन है… I have become a fan of your magic of words… Amazing…
dhanyabaad …. jo aapko kavita pasand aayi
Good
वाह