“वे”
आकाश से आती हैं जेसे ठंडी ठंडी ओस की बुंदे।
नन्हे नन्हे बच्चे आते हैं आँखे मूंदे।।
इन बूंदों को सँभालने वाली वो कोमल से पत्तियां।
बन जाती है नजाने क्यों जीवन की आपत्तियां।।
गोद में जिनकी किया इस जीवन का आगाज़ ।
लगती है नजाने क्यों कर्कश उनकी आवाज़।।
दुःख हमारे उनके आंसू,ख़ुशी हमारी उनके चेहरे की मुस्कान।
करते नही नजाने क्यों उनका ही सम्मान।।
हमें खिलाया फिर खाया हमे सुलाकर सोय थे।
खुद की उन्हें फिकर कहा थी वो तो हम में ही खोय थे।।
पता नहीं कुछ लोग किस भ्रम् में रहते हैं।
जिनके सर पर बेठे है उन्हें ही बोझ कहते हैं।।
अरे नासमझ समझदारों बिना किराय के किरायेदारों।
नीचले क्रम की ऊँची सोच वालों मुफ़्त सुविधाओं के खरीदारों।।
ओस पत्ति को ठंडक पहुंचती है न की उसपर अपना अधिकार जताती है।
पत्ति पे बने रहकर ही बूँद अपना अस्तित्व बनती है।
नीचे जो गिर गई तो मिट्टी में मिल जाती है।।
उनका दिल जो झुक गया तो उसका दिल भी दुखता है।
और उसका दिल जो दुःख गया तो पतन फिर न रुकता है।।
उन्हें कर के,खुद चैन से बेठे हो।
ह्रदय को अपने पाषाण बनाय बेठे हो।।
हम लोगों को पोषित किया,सब कुछ उनका गया फिज़ूल।
उनके दिए संस्कारों को हम गये भूल।।
गणेश जी के वो तीन चक्कर याद दिलाते हैं।
तीनो लोक उनके चरणों में आते हैं।।
जो अपने कर्मो से तुम उन्हें खुश कर पाय।
समझ लो के पूरा संसार जीत लाय।।
अपने माता पिता का सम्मान करें वही मनुष्य का प्रथम और परम कर्त्तव्य हैं।
प्रद्युम्न चौरे?
awesome poetry
bahut ache dost
nice piece of poetry