सूक्ष्म पल के कण

कुछ तुम सुनाओ
कुछ मैं सुनाऊँ
कुछ तुम कहो
कुछ मैं कहूँ
चुरा कर कुछ पल तन्हाईयों से
खेलें आँख-मिचौनी
कुछ तुम गुनगुनाओ
कुछ मैं गुनगुनाऊँ
गूँज उठेगी शहनाईयाँ
मन के झर्झर खंडहरों में
फिर हटाकर मैला पल्लू
बयाँ करेंगी
अपने उत्थान-पतन की दास्तान
सांझ ढलने को है
दिनकर भी मध्यम हुआ जाता
तिमिर झांकती झरोखे से
श्यामल आँचल की छाया तले
आओ समेट लें
तन्हाईयों के इन सूक्ष्म कणों को
ये धरोहर हैं रहस्य्मय भविष्य के
इतिहास के पन्नों से
निकलकर फिर मिलेंगे
कुछ नूतन तन्हाईयों के संग
खुलेंगे फिर कुछ राज़
हमारे अतीत के

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