अपेक्षा
बिरोध के फूल खिलें हैं
माशूम की निगाहों में
मजे करने की चाहत
दफन हुई कैदखाने में
बच्चे का अधिकार दया
बंद जनक के खाने में
ऊंची उड़ान की चाहत
गुम क्यूं हुई मयखाने में
आश का जब सांस घुटे
गुस्सा तो थोड़ा आयेगा
इससे न हल हुआ कभी
तन मन को ब्यर्थ जलायेगा
संतान पर आई मुसीबत
कौओं की पूजा खूब हुई
दो दिन में जो रिहा होते
उनपे जालसाजी खूब हुई
यूवा तो अल्हड़पन में
गलतियां नित करेंगे ही
इनको नाहक परेशान कर
तुम्हारा घर संवरेगा नहीं
अपेक्षा पूरी करेगा जो
बड़ा वही कहलायेगा
जिंदगी भर हसरत रही
पाया हुआ कब लुटायेगा
बहुत ही सुन्दर रंजन जी।
धन्यवाद
बहुत सुंदर लिखा है सर, बिल्कुल व्याकरण सम्मत
अति उत्तम रचना
Great