ऐ जिन्दगी

ऐ जिन्दगी ! कभी तो तू मेरी होती
जिधर को मैं कहती, उधर रूख़ करती ।।

तू जिधर इशारा करती, मुङ जाते हैं उधर
तेरे आगे अपनी मर्जी चलती है किधर
काश! बस एक बार मेरा अनुसरण करती।

थक गये हैं, तेरी इच्छाओं की कद्र करके
भीगी है पलकें मेरी, उभरे हैं जो दर्द बनके
इस पीङा की अनुभूति तू भी जिया करती ।

पथ पर पथिक बहुत हैं पर,अपनी-अपनी मंजिल है
कहाँ मिलता है सबको , जो जिसके काबिल है
मनचाही मंजिल का फिक्र,तू भी करती ।

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Responses

  1. पथ पर पथिक बहुत हैं पर,अपनी-अपनी मंजिल है
    कहाँ मिलता है सबको , जो जिसके काबिल है,
    आपकी कविता का भावपक्ष अत्यंत मजबूत है,
    कलापक्ष भी अपनी सुंदरता लिए हुए है, वाक्यांत और तुक का सुन्दर समन्वय है ,
    बहुत खूब

      1. तमाम पक्षो को अपनी टिप्पणी में पिङोने के, बहुत बहुत धन्यवाद ।

    1. हाँ, अमीतजी
      यदि ऐसा ही होता
      तो शायद यह जहाँ
      अब से भी ज्यादा खूबसूरत होता ।

  2. “पथ पर पथिक बहुत हैं पर,अपनी-अपनी मंजिल है
    कहाँ मिलता है सबको , जो जिसके काबिल है
    मनचाही मंजिल का फिक्र,तू भी करती ।”
    बहुत सुंदर पंक्तियां
    जिंदगी किस मोड़ पर ले जाएं किसी को कुछ नहीं पता,
    हम क्या सोचते हैं और क्या होता है उसका कोई अनुमान नहीं होता, कभी-कभी अच्छा भी होता है और कभी बुरा भी।
    बहुत ही सुंदर भाव
    बेहतरीन प्रस्तुति

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