खुदगर्ज़ी

‘यही चलन सा हो गया है अब ज़माने का,
हो जो खुदगर्ज़ी तो एहसान घट ही जाता है..
रास्ता कौन बदलता है किसी की खातिर,
जो पेड़ बीच में आता है कट ही जाता है..’

– प्रयाग

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