गांव की बेटी

दिन की शुरुआत अंगीठी के
उठते धुएं से शुरू होती
पकाती परिवार के लिए रोटी
फिर भी सुने समाज की खरी-खोटी
थक जाए कितना भी तू
फिर भी आराम ना लेती
देख तुझे मैं यही कहती
कैसे यह सब है करती
मेरे गांव की तू बेटी.
मीलो चलती पानी भरकर लाती
रख घड़ा जमी पर फिर से
दोपहर का खाना बनाती
रख गमछे में प्याज और चार रोटी
फिर से खेत की तरफ रवाना होती
खिलाकर रोटी पिलाकर पानी
पति की प्यास बुझाती
ले हसिया हाथ में कटाई में लग जाती
वह थकी मांदी होकर भी काम करती रहती
पता नहीं कैसे यह सब कर पाती
मेरे गांव की तू बेटी.
दिहाड़ी लेकर जमीदार से
घर की ओर जाती
फिर से पकाती और
परिवार को खिलाती
झाड़ पोंछ उन्हीं कपड़ों को
नहाकर पहन लेती
जैसे वो हो कुछ भी नहीं
ऐसे वो सोती
गहरी नींद में जाकर वह
खुद ही अपना अस्तित्व खो देती
इतना सब करके भी
वो कोई वजूद ना पाती
थक कर ऐसे सोई है वो
चिंता उसे कोई ना सताती
बच्चों से लिपट कर बस चैन से
हर रोज वो सो जाती
पता नहीं कैसे यह सब कर पाती
मेरे गांव की तू बेटी.

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