डर था
कविता- डर था
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पागल था
पागल हूँ
पागल ही रहुंगा,
यह तुम्हारी सोच है|
तेरी नजरो मे ,
सब कुछ था|
बस इंसान नहीं
जानवर था|
इंसान बनने कि कोशिश में,
तेरे मुख से गाली खाया|
फिर भी मै हारा नही,
आखिरी बार कोशिश करने आया|
थक गया हू, पिट गया हूँ,
खुद की नजरो मे गीर गया हू|
प्यार मे आदत से लाचार हू,
फिर भी तुम्हे पाने को-
खुदा कि चौखट पर गया हू|
इतना गीर गया अपनी नजरो मे,
प्रभु से! नजर न मिला पाया|
डर था कही डाट न खाऊ प्रभु से,
शीश झुका के फरियाद सुनाया|
प्यार का पहला पन्ना हसना है,
दुजा कभी कभी रोना है|
बोले पुजारी फिर मुझसे,
प्यार मे सब कुछ होना है|
प्यार किये हो यदि सच्चा,
बिन मोल बिको है अच्छा|
हर बार हार कर खुश कर दो,
इससे नहीं है कुछ अच्छा|
दर्द सहो पर ना सहने दो,
रोओ तुम उसे ना रोने दो|
मालुम है जब दर्द की छमता,
कभी दर्द उसे ना होने दो|
हरि चरणों से ना “ऋषि” रुठे,
मिलेगी वह यह विश्वास न टुटे|
विश्वास प्रेम की उर्जा है,
बिन उर्जा के सब कुछ टुटे|
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कवि -ऋषि कुमार “प्रभाकर ”
पता, ग्राम -पोस्ट खजुरी खुर्द, खजुरी
थाना- तह. कोरांव
जिला-प्रयागराज, पिन कोड 212306
Nice
Tq
क्या बात है बहुत ही खूबसूरत कविता है
थी कोई जो समझी नहीं
Nice poem
Tq
वाह वाह जी
Nice
Nice