तेरा ही ज़िक्र
तेरा ही ज़िक्र है, मेरी हर एक नज़्म में।
इरादा नहीं तू रूसवा हो, भरी बज़्म में।
पढ़ता हूँ कुछ, चला जाता तेरी ही रूख़,
हार जाता हूँ मैं, दिलो-ज़ेहन के रज़्म में।
पहलू में गर तू हो, ज़रूरत नहीं ज़िक्र की,
पर लगता कुछ तो कमी है, मेरी हज़्म में।
यहाँ चेहरे तो बहुत से हैं, पर हर चेहरे में,
तेरा ही चेहरा नज़र आता, मेरी चश्म में।
सात फेरे हो, या फिर हो जश्ने-ज़िन्दगी,
तू साथ हो मेरे, ज़िन्दगी की हर रस्म में।
देवेश साखरे ‘देव’
नज़्म- शायरी, बज़्म- सभा, रज़्म- युद्ध,
हज़्म- दृढ़ता, चश्म- आँख
Atisunder
धन्यवाद
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Thanks
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सुंदर अभिव्यक्ति
धन्यवाद
वाह वाह