निगाहों में आ गयीं

शाम फिर खिसक कर, निगाहों में आ गयी
बांते कुछ उभरकर, आंखों में छा गयीं
अब रात हो रही है, मैं कहाँ ही अकेला हूँ
मैं हूँ, और लंबी रातें हैं, यादों का लंबा मेला है
न मैं सोता हूँ, न सोती हैं ये मेरी यादें
पूरी-पूरी रातों का यही तो झमेला है
जागते-जागते सूरज की लालिमा आ गयी
भोर होने लगी, सुहानी सुबह आ गयी
तभी तो दिखने लगा सब
आंखों में लाली छा गयी
बातें कुछ बिसरी सी, आंखों में फिर से छा गयी
2-दिल चुपचाप रहा सारी ही रैना
मन क्या कहता किसी से, सीखा था बस चुप रहना
तभी तो, सारी कहानी
अश्कों में बहकर आ गयी
शाम फिर खिसक कर,निगाहों में आ गयी
बातें कुछ बिसरी सी, आंखों में फिर से छा गयी
3-सीप का मोती न था, जो मुझे कोई खोज लेता
क्या रखा था छुपा कर, जो मुझे कोई ढूंढ लेता
मैं तो हीरों की हिफाजत करता रहा
खुद को कोयला ही मानकर
तभी तो कालिमा, चेहरे के ऊपर छा गयी
भूली-बिसरी सी यादें
फिर से उभरकर आ गयीं
बातें कुछ उभरकर, आंखों में फिर से छा गयीं
—-धन्यवाद-
धर्मवीर वर्मा ‘धर्म’

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