“परिपक्व बंधन”
हमारे परिपक्व बंधन पर था
घोर अंधेरा छाया
एक भंवरे ने आकर के
तेरा हाल बताया
तेरी बेचैनी पर मेरी आँख
भर आई
तेरी नादानी पर मुझको
हँसी खूब है आई
ये कैसा अल्हण पन है ?
यह फागुन का मौसम है
आ बाँहों में तू आ जा
यह मन अब भी पावन है
है तूने दूरी बनाई
है पास तुझे ही आना
एक वादा अब कर देना
फिर दूर कभी ना जाना….
हमारे परिपक्व बंधन पर था
घोर अंधेरा छाया
एक भंवरे ने आकर के
तेरा हाल बताया
ह्रदय की व्यथा बयान करती हुई कवि प्रज्ञा जी की बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति
Thanks di
बहुत खूब
Tq
किसी से नाराजगी व्यक्त करती तथा उसे याद करती हुई रचना
Tq
अत्यंत सुंदर रचना
धन्यवाद
कमाल की कविता है
नमन है आपकी लेखनी को
१०० टका सच कहा
धन्यवाद
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
Tq
Thanks
Tq