पहचान
स्याह रात की चादर ओढ़ कर।
खुद्दारी की सभी हदें तोड़ कर।
निकला हूं गुमनामी में पहचान ढूंढने,
शोहरत की सभी ख्वाहिशें छोड़कर।
घरौंदा ख्वाब का कहीं बिखर न जाए,
बुना था जो तिनका तिनका जोड़कर।
ये भी एक वक्त है, वक्त गुज़र जाएगा,
वक्त से आगे ना निकला कोई दौड़कर।
हौसला तो है, कुछ कर गुजरने की ‘देव’,
राह निकाल लूं दरिया का रुख मोड़ कर।
देवेश साखरे ‘देव’
वाह
Thanks
वाह बहुत सुंदर रचना
Thanks
खूब लिखा है
Thanks
very nice
Thanks
Very nice
Thanks
घरौंदा ख्वाब का कहीं बिखर न जाए,
वाह