पूस में किसान
कुछ दिन बचे हैं पूस के
ये भी निकल हीं जाऐंगे।
सर्दी है चारों ओर व्यापित
कब तक हमें सताऐंगे।।
क्या कंबल रजाई कफी है
सर्दी भगाने के खातिर।
तन मन की गर्मी काफी है
खुद को बचाने के खातिर।।
बेशक़ बिछौना पुआल का
सुख नींद सुला जाऐंगे।।
तन पे फटी है चादर
जलती अंगीठी आगे।
बैठे हैं खेतों के मेड़ पे
सारी सारी रात जाने।
कुछ दिन की तो बात है
अच्छी फसल ही पाऐंगे।
बादल घने आकाश मे
घनी अंधेरी रात है।
किनमिन -सी हो रही
कैसी ये झंझावात है।।
किस आश में ‘विनयचंद ‘
गिर कर संभल जाऐंगे ।
मजदूरों और किसानों की
विरले ही नकल लगाऐंगे।।
किस आश में ‘विनयचंद ‘
गिर कर संभल जाऐंगे ।
मजदूरों और किसानों की
विरले ही नकल लगाऐंगे।।
—-बहुत ही शानदार पंक्तियाँ, बहुत सुंदर कविता, वाह
बहुत बहुत धन्यवाद पाण्डेयजी
“तन पे फटी है चादर जलती अंगीठी आगे।
बैठे हैं खेतों के मेड़ पे सारी सारी रात जाने।”
पूस की ठंड में किसानों की स्थिति और मेहनत का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करती हुई बहुत सुन्दर कविता
शुक्रिया बहिन
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जी भाई जी
बहुत सुन्दर रचना है। वाह
धन्यवाद
लाजवाब अभिव्यक्ति
हार्दिक धन्यवाद आपका