मंजिल का नज़ारा तो…………..
मंजिल का नज़ारा तो अपनी पालकों तले कम ही बीता है।
हमारा ज्यादा वक़्त तो बस सफर के बहाने ही बीता है।
किसीके दिल में किसीके खातिर प्यार है कितना
इस उंचाई को नापने खातिर कहां कोई फीता है।
वक़्त की रफ्तार को कोई लगातार चुनौती दे सके
क्या इस दुनियाँ में कहीं ऐसा भी कोई चीता है।
वो पुराने दिन पुरानी बातें सिर्फ इतिहास में ही रह गई
इस जमाने में तुम्हारे खातिर कहां कोई सीता है।
लेकिन उनकी वफा पे उंगली उठाना भी मुनासिफ नहीं
ये मर्द भी तो जानबूझकर घाट–घाट का पानी पीता है।
अपने लिए भी जीने का वक़्त कम मिलता है आज़कल
तुम पूछते हो कि यहां कौन किसके खातिर जीता है।
हार–जीत के दौर में असल जीत सिर्फ तब हासिल हुई
जब–जब इस ‘बंदे’ ने पहले खुद को बखूबी जीता है।
– कुमार बन्टी
बहुत सुंदर रचना
सुन्दर रचना