मानवता
एक व्यक्ति का करने गए
थे अंतिम संस्कार
कच्ची-पक्की बना रखी थी,
ढह गई वह दीवार,
ढह गई वह दीवार..
बेमौत पच्चीस मरे,
यह क्या हो गया अरे !
लालच का ऐसा भी,
क्या आलम हुआ
गिरेंगी छत दीवारें चंद महीनों में ही,
क्या इतना भी ना अनुमान हुआ।
थोड़े से लालच की खातिर,
मानवता का कितना नुकसान हुआ
लालच बढ़ता ही जा रहा,
मानवता मरती जाती है।
क्या ये भी हत्या के सम ना हुआ??
सोच-सोच के रूह थर्राती है।
____✍️गीता
यह कवि गीता जी की संवेदनासिक्त रचना है। इस कविता ने सच्ची संवेदना में अपनी आवाज मिलाई है। इस कविता ने आज के पतनोन्मुख चरित्रों को उजागर किया है जो जरा सा लालच के चक्कर में आकर घटिया निर्माण करते हैं। औऱ उससे निरीह लोग जान से हाथ धो बैठते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा था, जैसे-जैसे सभ्यता विकसित होती जाएगी, कवि कर्म कठिन होता जाएगा। लेकिन आज भी विकसित होता समाज ऐसे कृत्य कर रहा है जिससे कवि की लेखनी सच कहे बिना नहीं रह पा रही है। बहुत ही यथार्थ चित्रण
कविता की इससे सुंदर समीक्षा तो हो ही नहीं सकती है सर। यह समाचार सुनकर हृदय सच में व्यथित हो उठा था । इस प्रेरणादायक समीक्षा के लिए आपका हृदय से धन्यवाद सतीश जी🙏
बहुत उम्दा रचना
बहुत-बहुत धन्यवाद पीयूष जी
शानदार रचना है गीता जी
आपका हार्दिक धन्यवाद कमला जी
वाह वाह क्या बात है
सादर धन्यवाद भाई जी🙏
लेखनी में खूब सच्चाई भरी है, आप श्रेष्ठ हैं।
आपका बहुत बहुत आभार सर🙏
दर्दनाक घटना, यथार्थ चित्रण
बहुत-बहुत धन्यवाद अनु जी। वास्तव में बहुत ही दर्दनाक घटना घटी है