मैं अन्नदाता
मैं अन्नदाता
देख अपनी थाली में खाना रूखा सूखा,
हो उदास सोचे किसान फ़िर एक बार,
हूँ किसान कहलाता मैं जग में अन्नदाता,
रहता साथ अन्न के, मिले मुझे ये मुश्किलों से,
मेहनत मेरी रोटी बन भूख मिटाती जग की,
न देख सके वो सुबह सुहावनी सब सी,
पसीना मेरा शर्माए गर्मी जेठ बैसाख की,
बैलों संग मेरे हल के धरा मेरी निखरती,
बीज लिए आशाएं धरा के मैं बोता,
आशाएं अब मेरी देखें बादल वो चंचल,
आता सावन घुमड़ घुमड़ लाये मुस्कान,
मेहनत फ़िर मेरी नवांकुर धरा खिलाए,
दिन रात मेरे फसलों संग लहलहाएँ,
देख फसलें मुझ संग मेरी धरा खिलखिलाए,
सोना जग का सोना हमेशा गुमाये,
सोना खोकर सोना फसलों का मैं पाता,
धान मेरी धरा का अब घर घर जाए,
मेहनत मेरी ढल रोटी में माँ की भूख मिटाये,
भूख जग की मैं मिटाता सोता ख़ुद भूखा,
करो गुणगाण जब रोटी का माँ की ,
याद करना मेरी भी मेहनत मेरे वीरा।
स्वरचित
प्रतिभा जोशी
किसानों पर आधारित बहुत सुंदर और यथार्थ रचना
अति, अतिसुंदर अभिव्यक्ति बहुत सुंदर रचना
बहुत खूब, वाह
बहुत अच्छी रचना