रंगों का खेल
रंगों से ही समा बांधे जाते हैं,
रंगों से ही ये ज़मीं आसमां जाने जाते हैं।
जनाब पर अब तो रंग भी धर्म के नाम पर बाँट दिये जाते हैं,
और ये रंग गुरूर की मिसाल बन जाते हैं।
रंगों के कारण भेद भाव होता देखा है,
पर अब तो रंगों के साथ भेदभाव होता है।
डर लगता है प्रकृति हरी देख कर मुसलमान को न दे दें,
खून लाल देख कर हिंदू का हक न जम जाए।
गुज़रिश् है की रंगों को मन की खुशियाँ ही बढ़ाने दो,
वरना जहाँ में भी सरहद बनकर दंगे शुरू हो जाते हैं।
बाँटने का शौक है तो खुशियाँ बांटो, दुख दर्द बांटो,
ये रंग क्या चीज है???
बहुत खूब
Dhanyawaad
Khub ….
धन्यवाद
खूबसूरत कविता
धन्यवाद
गुज़ारिश , ज़हान
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति
लोग अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए धार्मिक भेदभाव का सहारा लेते हैं, वही इन लोगों ने प्रकृति के रंगों, वेषभूषा आदि का भी बंटवारा करना शुरू कर दिया है ।कविता में इन सबसे ऊपर उठने की बात की गई है कुछ पंक्तियों में इंसानियत व मानवतावाद की झलकियां दिखाई देती है।
आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
बहुत ही अच्छी
Dhnayawaad
कवि समाज में व्याप्त कुरीतियों के प्रति आवाज उठा रहा है जिस प्रकार वेशभूषा रंगो आदि का बटवारा धर्म के नाम पर किया जा रहा है बहुत ही गलत है कवि की या कविता समाज में जागरूकता फैलाने का कार्य कर रही है और कभी के हृदय की वेदना को व्यक्त कर रही है भाव पक्ष तथा शिल्प बहुत ही मजबूत सुंदर और अच्छी दिशा में जा रहे हैं
Aapka bahut bahut dhanyawaad
वाह वाह
Dhayawaad