लाचार

वक्त ने कैसा करवट बदला बेज़ार होकर।
तेरे शहर से निकले हैं बेहद लाचार होकर।

पराया शहर, मदद के आसार न आते नज़र,
भूखमरी करीब से देखी है बेरोजगार होकर।

तय है भूख और गरीबी हमें जरूर मार देगी,
भले ही ना मरे महामारी के शिकार होकर।

आये थे गाँव से, आँखों में कुछ सपने संजोए,
जिंदगी गुज़र रही अब रेल की रफ़्तार होकर।

बेकार हम कल भी न थे, और ना आज हैं,
दर-ब-दर भटक रहे, फिर भी बेकार होकर।

जरूरत मेरी फिर कल तुझको जरूर पड़ेगी,
खड़ा मैं तुझको मिलूँगा फिर तैयार होकर।

देवेश साखरे ‘देव’

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