वह बेटी बन कर आई है
एक युवती बन कर बेटी,
मेरे घर आई है।
अपने खेल खिलौने माँ के घर छोड़कर,
हाथों में लगाकर मेहंदी
और लाल चुनर ओढ़ कर
मेरे घर आई है।
छम छम घूमा करती होगी,
माँ के घर छोटी गुड़िया सी
झांझर झनकाकर, चूड़ियां खनका कर,
मेरे घर आई है।
बेटी बन चहका करती थी,
बहू बन मेरा घर महकाने आई है।
एक युवती बन कर बेटी,
मेरे घर आई है।
अपनी किताबें वहीं छोड़कर,
उन किताबों को भीतर समाए
मेरे पुत्र के नाम का
सिन्दूर माँग में सजाए,
वह बेटी से माँ का सफर
तय करने आई है।
एक युवती बन कर बेटी,
मेरे घर आई है।
हर दिवाली पर,
जो सजाती थी माँ का घर,
अब रौनक बन कर
मेरे घर रंगोली बनाने आई है
मेरे घर को अपना बनाने आई है।
एक युवती बन कर बेटी,
मेरे घर आई है।।
____✍️गीता
एक युवती बन कर बेटी,
मेरे घर आई है।
अपने खेल खिलौने माँ के घर छोड़कर,
हाथों में लगाकर मेहंदी
और लाल चुनर ओढ़ कर
मेरे घर आई है।
—— बहुत खूब, बेहतरीन रचना, भाव व शिल्प का अद्भुत समन्वय
बहुत सुंदर और प्रेरक समीक्षा के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद सर
अतिसुंदर भाव
सादर आभार भाई जी 🙏
बेटी
बचपन की यादों को
संजोकर
चली ससुराल
आभार सर🙏
True