व्यथा

अध ढकें तन को छिपाए
दुनिया के बाजार में
गुमसुम सी बैठी
एक नारी
लोग आते हैं और
रुक कर आगे बढ़ जाते हैं
हो रहा हो यहां
कोई तमाशा जैसे
किसी मनचले की नजरें
उसके अधरों पर है
किसी की है उसके खुले
तन बदन पर पर
कोई ऐसा ना मिला
जो समझ सके उसके
आंसुओं की भाषा
शामिल हो सके उसके
जिंदगी की वीरान गलियों में
लगता है सती सीता की गाथा
पन्नों पर रह जाएगी
मां बहन बेटी के आदर्शों से
भरे इस देश में
पग पग व्यथा नारी की
सुनी जाती है।
वीरेंद्र सेन प्रयागराज

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