बालश्रम:- “गरीबी का थप्पड़”
दूध के दाँत पालने में ही
टूट गये
गरीबी का थप्पड़ इतनी
जोर से पड़ा
लाद दी जिम्मेदारी की पोटली
कंधों पर
बचपन के खिलौने पल में
टूट गये
थमा दी चाय की केतली
जब मुझे
तब जानी मैंने शिक्षा की कीमत
जिन्दगी की आड़ी-सीधी रेखाएं
यूँ खिंच गईं
माजते-माजते ढाबे के बर्तन
कोमल हथेलियां वयस्क
हो गईं
जरूरी नहीं चाय बेंचने वाला
हर प्राणी राजा बन जाए !
बालश्रम बचपन को
लील जाता है
गरीबी का थप्पड़ जब
जोर से पड़ता है..
बाल मजदूरी करने वाले बच्चों के
विषय में बहुत सुंदर पंक्तियां
Thanks dear
बाल श्रमिकों की व्यथा को बयान करती हुई बहुत संजीदा रचना ।
उत्कृष्ट लेखन….सैल्यूट । लेखनी की प्रखरता यूं ही बनी रहे ।
धन्यवाद दी आपकी सराहना हेतु क्योंकि यही मेरी पूंजी है..
जब कोई सराहना करने वाला होता है तो कविता लिखने में आनन्द आता है
ये तो बिल्कुल सही बात है प्रज्ञा, मैं तुम्हारी इस बात से सहमत हूं।
अच्छी समीक्षा , लेखन को प्रोत्साहित करती है।
एक मंझे हुए कवि की रचना ही ऐसी हो सकती है, प्रज्ञा जी, बहुत ही शानदार। व्यवस्था का असली चेहरा सामने लाने में सफल लेखनी। वाह
इतनी प्यारी समीक्षा के आगे मेरी कविता कुछ भी नहीं..
धन्यवाद
जरूरी नहीं चाय बेंचने वाला
हर प्राणी राजा बन जाए !
बालश्रम बचपन को
लील जाता है
गरीबी का थप्पड़ जब
जोर से पड़ता है..
व्यंग्यात्मक एवं यथार्थपरक बेहतरीन पंक्तियां
जितनी तारीफ करें उतनी कम!
“बालश्रम जुर्म है,
बस कागज़ो में ही अच्छा लगता है
उस मासूम के खाली पेट से भी पूछों
कि उसे क्या अच्छा लगता है।”
इतनी प्यारी समीक्षा के आगे मेरी कविता कुछ भी नहीं..
धन्यवाद आपका मानुष सर आपके मुंह से निकले ये शब्द मुझे अत्यधिक प्रसन्न कर रहे है
बहुत खूब सुंदर चित्रण
इतनी प्यारी समीक्षा के आगे मेरी कविता कुछ भी नहीं..
धन्यवाद
धन्यवाद