हे अन्नपूर्णा बचा लो हमें तुम!
अपने लोक की ये कथा है, अपनी मां धरनी बसुन्धरा है
निज सुत की करनी से दुःखी हो
व्याकुल हो त्राहि-त्राहि करने लगी वो
तब उसने तप का लिया सहारा
त्रिलोक के स्वामी को जाके पुकारा
कहां छिपे हो, हे जग के रचयिता
कब हरोगे संताप इस मन का
प्रभु ने वरदान अवनी को दिया तब
अवतार ले संघार असूरों का किया जब
हे रत्नगर्भा कहां सो रही हो
सुत के संकटों से मुंह मोड़ रही हो
पल-पल आंचल के सितारे झङ रहे हैं
खोई कहां तूं, कैसे मनुज मर रहे हैं
तेरे गोद में पलने वाले, मिट्टी से खेलने वाले
असमय हो चले अनजाने काल के हवाले
इस संकट से उबारो से माता
मां – पुत्र का, हमारा है नाता
हम पुत्र हैं, कुपुत्र हो चले थे
तेरी संपदा का दोहन कर रहे थे
विरासत में मिली थी जो जीवन के सलीके
सतत रख सके न, चढ़े इच्छाओं के बलि पे
अब सज़ा से उबारो हमें तुम
नतमस्तक हैं, अन्नपूर्णा बचा लो हमें तुम!
बहुत सुंदर रचना
सादर धन्यवाद गीता जी
बहुत सुंदर प्रार्थना
(रचना के माध्यम से सुमन जी),
सादर धन्यवाद अमीताजी
आपकी शब्द चयन क्षमता को नमन है
धन्यवाद प्रज्ञाजी
वेलकम सुमन जी
बहुत खूब
Dhanywad sir