वक़्त का तमाचा
वक़्त का तमाचा हाथ क्या पूछे
वक़्त का तमाचा हाथ क्या पूछे
वज़ूद तेरा बूँद सा शामिल है मगर समुंदर में
गिर के संभले तो मगर संभले मगर गिर गिर के
बगैर दुनिया के हम नहीं है दुनिया कौन सा अकेले चलती है
फिर वहीँ फ़रियाद कौन रखेगा याद सिरहाने बैठी रही सिसकियाँ अपनी आबाद
बिन तेरे कमीं तो थी आँख में कुछ नमी तो थी युँ तो सांसें चलती रही मगर सांस कुछ देर को धमी तो थी
किसकी हसरत कैसी हसरत अपने तो दुखों को मिली बरकत उसे गुनाहगार कैसे कह दो सब थी अपनी ही वैसी हरकत
जिल्द बिन किताब का फूल बिन हिज़ाब का रातों का नहीं ख्वाब हूँ आफताब का
न सही गम सही खुद बन मरहम सही
सीने में दबे अरमान आँखों में झलक जाते है आँखों में छुपे अरमान ख्वाब बनके ढलक जाते है
घर से निकलोगे तो जानोगे चांदनी का वज़ूद क्या है
कहीं पर लब मचल गए कही मतलब मचल गए इंसा की हसरतों का क्या जब देखो तब मचल गए राजेश ‘अरमान’
कोई पीर न था कोई राहगीर न था बहता हुआ नीर न था ज़िंदगी का फ़क़ीर न था बस कुछ ढूंढती है आँखें ज़माने…
माना वो सिकन्दर था उसका भी मुक़द्दर था हमने अपने हाथों से उजाड़ा कुछ अपने भी तो अंदर था
मत रोको आंसुओं को कहीं बहता पानी रोक जाता है
ज़ख्म को गिनते क्यों हो गोया अब इन्तहा हो गई हो
कौन पी सका समुंदर को लहरे ही दर्द सहती है
मैखाने की बातें मैखाने तक रहने दो आंसुओं के सैलाब ही समुंदर होते है
कोरे कागज़ पे लिखी कोई दास्तां नहीं वज़ूद अपना बुलंद ज़माने से वास्ता नहीं
उन्हें ज़िद थी न हारने की कारण बन गई हार का
घर के अंदर घर नहीं मिलता कोई सुखनवर नहीं मिलता
बिक गया वो शक्स भी जिसे हम सौदागर समझते रहे
न सूरत में न सीरत में सब कुछ मन की जीनत में
कहाँ गई वो हवाएं कहाँ गई वो फ़िज़ाएं बिखर गई अब वफ़ाएं
गुमशुदा इंसा इस्तहार कहाँ दे
हर किताब की कहानी पन्नो की मेहरबानी
सब कुछ वैसा ही सब कुछ पैसा ही
वीराना अपना वीराना बेगाना वीराने को कौन जाना
चलो फिर बांट ले गम को फेक डाले खुशिओं को छांट ले
मन आतुर नयी सुबह को सुबह आदत से मज़बूर
वफ़ा क्यों ढूँढ़ते हो गुमी हुई है गुमी रहेगी
दर्द के पंजों में दर्द है
क्या लिखता है सब दिखता है इंसा बिकता है
उनकी तकलीफ देखी न गई जब तकलीफ देखी न गई वजह भी पूछी न गई कुछ निशान खामोश है
वो जलते क्यों है क्या शमा से रिश्ता है
कोई अजनबी छोड़ जाता आवाज़ दबी
किसकी कितनी उम्र वो जाने हम तो ज़िंदगी का हिसाब नहीं करते
जो उसकी तमन्ना बाकि फिर क्या करना
कोई रहबर नहीं कोई सहर नहीं अपनी भी खबर नहीं
नीले सपनो में काले से है शुमार अपनों में
उसने की थी शुरू लड़ाई मात मैंने भी कभी न खाई
मैंने जीतने की खवाइश की हार खुदबखुद शर्मा गई
वक़्त पकड़ता लम्हा इस दुनिया में हर इंसा तनहा
जंग इंसानियत की इंसान हो रहे लुप्त
उसके क़दमों की चाप सनाटों को रौंद गई चुपचाप
नफरतें बेहिसाब पहने नक़ाब निकलते जनाब
काश कोई पिंजरा ऐसा होता जो आसमा में टंगा होता
कौन आया कौन गया यही दुनिया
दिखते तो अब जो कभी दिखाई देते पर दिखने जैसे नहीं
कुछ तो था खास कैसे कोई भूले था वो ख़ास
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