nazm

कोई शाम फिर रात की बाँहों में दम तोड़ गई रात भर वो शाम दरवाज़े पे देती रही दस्तक कुछ धुँधले से साये करीब आकर…

soch

अपनी उलझनों के हम यूँ आदी हो गए है कभी मुजरिम तो कभी फरियादी हो गए है न होता कुछ तो कुछ और जरूर होता…

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