रुदन

June 15, 2023 in हिन्दी-उर्दू कविता

इक दावानल सी धधक रही,
अंतर्मन ज्वाला भभक रही,
नयनों तक आ न सकी कभी
अश्रु धारा वह सिसक रही।

आसक्त मैं कितना हुआ भला,
निर्जन मैं कितना चला भला,
बोलो आखिर कब थका भला?
मैं गिरा भले, फिर उठा और
संभला खुद ही फिर चला।

तेरे रुष्ठ हुए जाने का दुःख,
मेरे जीवन से जाने का दुःख,
मेरे रुदन की बस ये वजह नहीं
मुझे और भी है जग भर का दुःख।

वो जिनकी छत है टपक रही,
वो जिनके उदर है तड़प रहे,
जो बेघर होकर भटक रहे,
मुझको टटोलता उनका दुःख।

जो वर्षा जल को ताक रहे,
शोणित से भू को सींच रहे,
और कर्ज का बाट तोलने को
फांसी के फंदे लटक रहे।
हर रात भयंकर स्वप्न सा बन,
दहलाता मुझको उनको दुःख।

जिनका बचपन दम तोड़ रहा,
बस्ते को दीमक चाट रहा,
होटल के मेजों पर कोई
है छोटू चाय बांट रहा।
उसके भीतर की अभिलाषाओं
के दमन का मुझको रहता दुःख।
उसमें संभावित कल के उदय के
कत्ल का मुझको रहता दुःख।

वह चीख कि जिसका दमन हुआ,
फिर से सीता का हरण हुआ,
कुरु श्रेष्ठ भीष्म की भरी सभा में
द्रौपदी का चीर हरण हुआ।
है प्रश्न सभा से, मौन हो क्यों?
है प्रश्न भीष्म से, मौन हो क्यों?
है प्रश्न बड़ा युधिष्ठिर से
द्रौपदी को दांव पे रखने वाले
कौन हो आखिर कौन हो तुम?
मेरे अंतर्मन के कण कण को
झकझोरता इक स्त्री का दुःख।

ये कलम ही मेरी आंखें हैं
मेरे शब्द ही मेरे अश्रु है
जो शोषण करते सहते हैं
वे सब इस कवि के शत्रु हैं।।