दीपक कुमार सिंह
वज़ह…
December 19, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
दवा मैं दे दूँ तेरे इस गम का,
मेरे गर गम पता बता तो,
सितम मानता हूँ बहोत हुए हैं,
लेकिन मेरे सितम की खता बता तो,
जिद्द ही लिए अब भी बैठे रहोगे,
कभी तो मेरी सज़ा बता दो।
मैं पूजा मानूँ तेरी नज़र को,
मेरी नज़र से नज़र मिला तो,
मेरी भी है मिलने की आरज़ू,
कभी तो सुन ले कभी समझ तो,
तू चुप है और मैं हूँ तनहा,
इशारों में ही गुनाह बता दो।
तेरे लिए ही जीता हूँ यहां मैं,
मेरे इस वचन को गलत बात तो,
तेरी ख़ुशी और तेरे आंशुओं को,
मुझसे अलग हैं क्या ये बता तो,
मैं न समझूँ तेरे जतन को,
तो दोष मेरा सही बता दो।
# क्या मैं देशभक्त #
November 29, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
देश का सम्मान लेकिन किसी इंसान का नहीं,
चाहे बिलखते रहे सब बस अपना मुकाम हो सही,
देश-भक्ति की बातें किस्से, कहानियों, नगमो में ही जचे,
क्योंकि सब करे कृत्य जिसमें खुद का फायदा हो वही।
और लोग तस्वीर बदलने का नया फैशन हैं लाए,
चैनलों ने भी देश भक्ति के कई शैसन चलाए,
क्या करें फोटो बदल तिरंगा लगाने का,
जब मन में मेरे कभी सच्चाई ही न आए।
और सुनता हूँ इस मौसम देश भक्ति के नारे कई,
वतन पे मर मिटना और सारी पुरानी बातें वही,
और इतना प्यार कभी सच्ची नियत से होता गर,
तो बार -2 दिसम्बर का वो किस्सा दोहराता नहीं।
बहोत बिलखता है इंसान यहां कभी तो मुकर के,
और कोई कभी रुकता भी नहीं जुर्म कर-करके,
बातें करने में किसी का कभी कुछ गया है क्या,
लेकिन गलती बाद टटोलो तो खुद को कभी ठहर के।
देश भक्ति की बात से फिसल मैं चला गया कहाँ,
लेकिन सच कहूं तो सिर्फ यही चल रहा है यहाँ।
मिट्टी पे मर मिटना, तिरंगे की लाज़ क्या मैं बचाऊँगा,
पता नहीं कब मैं इन बातों का मतलब भी समझ पाउँगा।
आधार …
November 27, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
दिल टूटने का लिखने से क्या सम्बन्ध है,
ठोष हृदए को विचार आने में क्या कोई प्रतिबंध है,
जीवंत हुँ तो रखता हुँ अपना मंतव्य हर कहीं,
इंसान बनने की राह पे बात करता हुँ जो है सही…
दिल लगाने पे भी अक्सर होती है बहस यहाँ,
बातें हैं बेबाक परन्तु नियत तो है सहज कहाँ,
देखती हैं ये आँखे और सुनती है किस्सा-ए-प्रज्ञा,
जरुरत नहीं इसे दिल, ना ही किसी टूट की आज्ञा…
अगले छंद में करता हुँ बयान अपने दर्दनाक लिखने का,
समझो तो तुम भी प्रत्यन करना अपने ना बिकने का…
अपने समाज की संरचना बड़ी कठोर और कुछ यूँ,
पीकर वाहन चलाना मना तो बार में पार्किंग है क्यों,
बलात्कार के मामले हर दिन मौसम के हाल के माफिक,
इसको रोकने का उपाय करो इसकी चर्चा करते हो क्यों ||
आग का दरिया…
November 23, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
शमा ने परवाने की क्यों राख मांग दी,
जलते हुए परवाने ने भी फिर आग लांघ दी,
ये देखते हुए सिख लो अब तुम भी एक सबक,
सिर्फ शमा के विश्वास को परवाने ने जान दी।
सब जानता हूँ आग है अक्सर ही आगे इस डगर,
तो भी दुब जाता हूँ प्रेम में खो के क्यों मैं मगर,
विश्वास कर या फिर हो कर लाचार मैं भी यहाँ,
क्यों आता नहीं फिर मुझे शमा परवाने का विचार।
सीख के भी कभी इंसान मानता ही तो नहीं,
प्रेम और विश्वास में फर्क जानता भी तो नहीं,
काट के सर किसीका लाश पे होकर खड़े,
खुद की गलती को भी कभी पहचानता तो नहीं।
यही सब सोच मैंने अपनी भाषा बदल दी,
जितनी भी हो सकी अभिलाषा बदल दी,
और जुटा ली पूरी हिम्मत सामना करने को,
तो मुश्किल ने जिंदगी संग मिल परिभाषा बदल दी।
क्या मैं देशभक्त ।।।
November 16, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
देश का सम्मान लेकिन किसी इंसान का नहीं,
चाहे बिलखते रहे सब बस अपना मुकाम हो सही,
देश-भक्ति की बातें किस्से, कहानियों, नगमो में ही जचे,
क्योंकि सब करे कृत्य जिसमें खुद का फायदा हो वही।
और लोग तस्वीर बदलने का नया फैशन हैं लाए,
चैनलों ने भी देश भक्ति के कई शैसन चलाए,
क्या करें फोटो बदल तिरंगा लगाने का,
जब मन में मेरे कभी सच्चाई ही न आए।
और सुनता हूँ इस मौसम देश भक्ति के नारे कई,
वतन पे मर मिटना और सारी पुरानी बातें वही,
और इतना प्यार कभी सच्ची नियत से होता गर,
तो बार -2 दिसम्बर का वो किस्सा दोहराता नहीं।
बहोत बिलखता है इंसान यहां कभी तो मुकर के,
और कोई कभी रुकता भी नहीं जुर्म कर-करके,
बातें करने में किसी का कभी कुछ गया है क्या,
लेकिन गलती बाद टटोलो तो खुद को कभी ठहर के।
देश भक्ति की बात से फिसल मैं चला गया कहाँ,
लेकिन सच कहूं तो सिर्फ यही चल रहा है यहाँ।
मिट्टी पे मर मिटना, तिरंगे की लाज़ क्या मैं बचाऊँगा,
पता नहीं कब मैं इन बातों का मतलब भी समझ पाउँगा।
सोच जरुरी …
November 15, 2016 in Other
देश में उथल पुथल का माहौल बना है,
जियो लेने को भी यहाँ भीड़ घना है,
व्यस्त यहाँ इंसान हर रोज़ इस तरह सा,
हज़ार का पत्ता भी अब हर ओर मना है।
देश प्रेम बातूनी दे रहे बहोत से सलाह हैं,
जियो सही, बैंक की लाइन पे कर रहा वही आह है,
तो मुखौड़ा क्यों ओढ़े हुए सब देश भक्ति का यहाँ,
हमेशा आलोचना करने की कैसी ये चाह है।
सरहद पे खड़ा है सैनिक, तो कहता उसका काम है,
जान भी दे दे तो करते नही उसका ये सम्मान है,
ट्विटर पे बैठे रहना, इनका बहोत ही जरुरी है,
पेट पालने को नही की मेहनत फिर कैसा ये आम है।
काला धन नही है रखा तो क्यों तू चिल्लाता है,
500, हज़ार पे क्यों फिर इतना बौखलता है,
देश हित में थोड़ी सी परेशानी से कुछ न जायेगा,
करता नही बहस आम लाइन में चुप चाप खड़ा हो जाता है।
और दिया था मौका, मज़बूरी की बात करने वालों को,
देश हित में योगदान देने को, सभी के सभी हवालों को,
पर नियत का कोई पैमाना कहाँ कोई बना पाया है,
और हम भी खारिज़ करते हैं इनके सभी सवालों को।
और यहाँ कुछ अच्छा करने को इक सोच जरुरी है,
सीधी ऊँगली से नही तो फिर परोक्ष की मज़बूरी है,
किसी को न लगे धक्का न हो कोई आहात,
तो फिर लगता है कि हर बात ही बस अधूरी है।
कृपया आम आदमी का मुखौटा तुम अब छोड़ दो,
अपनी कोशिश संजोके देश हित में ही थोड़ा मोड़ दो,
कभी कभी ही सही, अच्छे काम की प्रशंसा तो करो,
न की अपनी कुकौशल से हर बात को ही मरोड़ दो।