मैं चीखा- चिल्लया तेरी बातो से ।

May 6, 2018 in हिन्दी-उर्दू कविता

वाह रे दुनिया !
मै चीखा–चिल्लया तेरी बातों से।
“हाँ” मै चीख रहा हूँ,चिल्ला रहा हूँ,मेरा कोई औकाद नही किसी पर अवाज उठाने की!
केवल जख्मों के छालों से सदा सुने है,सिसक -सिसक कर सोई है।
गरीबी की मारों से।
मेरा कोई औकाद नही तुम्हारे समाने आने का
केवल तेरी——-
बोली से सुने है दौलत के तलवारो का।
आजकाल कुछ लोग वैसे बोल रहे डर बैठे इनके जुवाओ मे।
कोई मजबुर ही समझेगा गरीबी की हत्यारो को ।
सभा के बीच जब मुँह या ना जुँबा होती पहचान ली जाती है।
गरीबी की औकादो का—-

ज्योति कुमार
मो०९१२३१५५४८१

छोड़ दिए ना हमको

May 5, 2018 in हिन्दी-उर्दू कविता

हमे तो मालुम था,
पतझड़ मे पत्ते भी साथ छोड़ देते है,देखकर मेरी तबाही को अपनो भी साथ छोड़ देते है!!
बस तु तो चलती हुई मुशाफीर थी-
ये मतलबी दुनिया बाप को भी छोड़ देते है।
आज वो फिर मिली सड़को पर याद आ गई तु ने तो हवा के रूख देखकर अपनी रंग बदली थी।
उठा लिए ना मेरे मजबुरी का फायदा ना जबाब ही माँगे ना मौका दिए सफाई का।।
आज हमे मालुम हुआ अदा-बफा का जमाना गया दौलत का तलवार,हवाँ की रूख बनाती है रिस्ता यारो।

गरीब हूँ पर मुझे अधिकार चाहिए।

May 5, 2018 in हिन्दी-उर्दू कविता

अब मुझे मेरी जिन्दगी या श्मशान चाहिए!!
गरीब हूँ मालिक मुझे मेरा सम्मान चाहिए ।
मै रोता रहता हूँ अमीर के अत्याचारो से,धिन जाती है मुझे अपने उपर हो रहे”
मुझे समानता का अधिकार अपने बच्चे और परिवार का उत्यान चाहिए।
गरीब हूँ मुझे सम्मान चाहिए।
रोज लड़ता हूँ मै अपने आप से नफरत होती है, मुझे मेरे अपमान से ।
गरीब हूँ———-
मुझे भी सम्मान और समानता का अधिकार चाहिए।
मुझे भी थोड़ी सी उन्मुक्त जमीं और खुला आसमान चाहिए।
गरीब हूँ मालिक मुझे भी सम्मान चाहिए।

ज्योति कुमार

वस्ती की पुकार

May 5, 2018 in हिन्दी-उर्दू कविता

वस्ती की पुकार
———————————–
डरावना–डरावना सी भय लगी इस वस्ती मे।
चार–पाँच लफँगा हर मोड़ पर खड़ा इस वस्ती मे।
कितना राज छुपाए डरा–डरा सा हूँ खादी पहने वाले के बच्चे बनकर लफँगा खड़े इस वस्ती मे!!
कहने को कुछ बात बचे इस वस्ती से,अब दो–चार इंसान बचे इस वस्ती मे।

ज्योति कुमार

New Report

Close