सवा ले चल हमें भी उस निशाँ तक

August 18, 2025 in ग़ज़ल

सवा ले चल हमें भी उस निशाँ तक
उमीदें रक़्स करती हैं जहाँ तक

तसव्वुर की रसाई है जहाँ तक
किसी दिन तो मैं पहुँचूंगा वहाँ तक

हमारी ज़िन्दगी की दास्ताँ तक
ना पहुँचा कोई भी आहो-फुगाँ तक

ज़माना ज़ुल्म ढाएगा कहाँ तक
वफ़ा की है रसाई आसमाँ तक

उड़ा कर ले गईं ज़िद्दी हवाएँ
मिरे जलते नशेमन का धुआँ तक

हज़ारों ज़ख़्म हैं सीने के अन्दर
कोई मरहम लगाएगा कहाँ तक

हमें तामीर करना था नशेमन
तिरे पाबन्द रहते हम कहाँ तक

मदावा कैसे हो जाता ग़मों का
कोई पहुँचा नहीं दर्दे-निहाँ तक

अब पैकर-ए-ख़्याल-ए-सनम बन गया हूँ मैं

August 18, 2025 in ग़ज़ल

अब पैकर-ए-ख़्याल-ए-सनम बन गया हूँ मैं
यानी वजूद-ए-लुत्फ़-ओ-करम बन गया हूँ मैं
اب پیکرِ خیالِ صنم بن گیا ہوں میں
یعنی وجودِ لُطف و کرم بن گیا ہوں میں

यूँ छू रही हैं मुझ को वो रंगीन उंगलियाँ
जैसे हसीन ज़ुल्फ़ का ख़म बन गया हूँ मैं
یوں چھو رہی ہیں مجھ کو وہ رنگین اُنگلیاں
جیسے حسین زُلف کا خم بن گیا ہوں میں

मेरे ही दम से दैर-ओ-हरम में है रौशनी
कंदील-ए-दैर शम्म-ए-हरम बन गया हूँ मैं
میرے ہی دم سے دیر و حرم میں ہے روشنی
قندیلِ دیر شمعِ حرم بن گیا ہوں میں

क्यों मेरी सम्त उठने लगी है वो बार-बार
क्यों मरकज़-ए-निगाह-ए-करम बन गया हूँ मैं
کیوں میری سمت اٹھنے لگی ہے وہ بار بار
کیوں مرکزِ نگاہِ کرم بن گیا ہوں میں

करती है रहगुज़ार भी अब मेरा एहतेराम
किस नाज़नीन का नक़्शे क़दम बन गया हूँ मैं
کرتی ہے رہگزار بھی اب میرا احترام
کس نازنین کا نقشِ قدم بن گیا ہوں میں

मुझ को तिरी निगाह-ए-करम की थी आरज़ू
ये क्या हुआ कि मश्क़-ए-सितम बन गया हूँ मैं
مجھ کو تِری نگاہِ کرم کی تھی آرزو
یہ کیا ہوا کہ مشقِ ستم بن گیا ہوں میں

जब तुम न थे तो एक जहन्नुम थी ज़िन्दगी
तुम आ गए तो बाग़-ए-इरम बन गया हूँ मैं
جب تم نہ تھے تو ایک جہنّم تھی زندگی
تم آ گئے تو باغِ اِرم بن گیا ہوں میں

पढ़ने लगे हैं वो भी रिसालों को शौक से
जब से ‘नदीम’ अहल-ए-क़लम बन गया हूँ मैं
پڑھنے لگے ہیں وہ بھی رسالوں کو شوق سے
جب سے ندیمؔ اہلِ قلم بن گیا ہوں میں

हम यूँ भटक रहे हैं सहरा-ए-जिंदगी में

August 18, 2025 in ग़ज़ल

रस्ता मिला न मंज़िल रहबर की रहबरी में ।
हम यूँ भटक रहे हैं सहरा-ए-जिंदगी में ।।

तुम तैर कर तो देखो सूखी हुई नदी में ।
फर्क़ आएगा समझ में खुश्की में और तरी में ।।

शौक़-ए-तलब की शायद मेराज हो गई है ।
दीवाना खो गया है महबूब की गली में ।।

फूलों की खुशबूओं से महरूम है जो अब तक ।
वह शाख़ आ गई है एहसास-ए-कमतरी में ।।

खुशियाँ मना रहे हैं कंदील के उजाले ।
हम आ गए हैं जब से आगोश-ए-तीरगी में ।।

साग़र में और सुबू में पाई कहाँ वो लज्ज़त ।
जो लुत्फ़ हमने पाया आँखों से मैकशी में ।।

जिस वक्त मेरी आँखें देखेंगी उस के जलवे ।
हो जाएगा इज़ाफ़ा आँखों की रौशनी में ।।

कहते हैं ये नजूमी पढ़ कर किताब-ए-हस्ती ।
नाकामियां लिखी हैं ‘ख़ालिद’ की जिंदगी में ।।

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