35 Minute

June 9, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

हमारे घर से ऑफिस (Office) का रास्ता कुछ 35 मिनट का है

3 सिगनल (Signal) और 64 km का यह रास्ता वही है जो GPS से सीखा है

कोई नया मोड़ लेने की ना कभी ज़रुरत पड़ी और ना कभी ले कर देखा है

घर से ऑफिस जाने का सिलसिला चल रहा है कई सालों से

बाहर ट्रैफिक से जूझते हैं और अंदर मन के सवालों से

 

मन पूछता है

क्यों लगे हो कुछ हासिल करने की इस होड़ मे

कुछ बनने के लिए मंडे (Monday) से संडे (Sunday) की दौड़ मे

रुक जाओ थम जाओ कुछ पल सांस तो ले लो

ज़िंदा हो तुम इस हकीकत का अहसास तो ले लो

 

आगे लाल सिगनल (Signal) देख हम गाड़ी सिगनल (Signal) पर रुकातें हैं

सिगनल (Signal) पर सबसे आगे खड़े होने की निराशा को छुपा मन को समझातें हैं

इस मंडे (Monday) से संडे (Sunday) के चक्र को रोकना नहीं है इतना आसान

जो रुकते भी हैं तो उम्मीदों का ट्रक (Truck) हॉर्न (Horn) मार करता है परेशान

 

हमे ट्रैफिक (Traffic) से जूझता देख मन कुछ पल शांत हो जाता है

फिर रास्ता खुलते ही माँ की तरह डांट लगाता है

ठीक है पर इस दौड़ मे और कितना आगे जाओगे

जहाँ हो ठीक हो, और कितनी मंजिलें पाओगे

हम आगे की गाड़ी को पीछे करने के लिए रफ़्तार बढ़ाते हैं

ज़िन्दगी मे अब तक यही सीखा है, इस बात का मन को आभास करते हैं

लड़ो, आगे बड़ो स्कूलों मे यही तो सिखाया है

जो मरा है हर पल, आगे वही तो बड़ पाया है

 

हमे आखरी राउंडअबाउट (Roundabout) पर गाड़ी घुमाते देख मन भी बात को घुमाता है

ठीक है मत रुको, आगे बड़ो, पर कोई नया मोड़ लेने मे तुम्हारा क्या जाता है

कुछ ऐसा करो जो तुम्हारा जूनून हो, जिसमे तुम सामर्थ हो

जो मुझे भी भाये, जिसमे जीने का अर्थ हो

हमे मन की यह बात भा जाती है

पर इस से पहले हम कुछ सोचें ऑफिस (Office) की पार्किंग (Parking) आ जाती है

 

किसी दिन 35 मिनट फिर बात करेंगे यह कह मन को फुसलाते हैं

और मंडे (Monday) से संडे (Sunday) की दौड़ मे फिर लग जाते हैं

 

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चलो कुछ लिखते हैं

May 31, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

चलो कुछ लिखते हैं

एक अरसा हो गया कुछ लिखा ही नहीं

जिसे लिख सकें ऐसा कोई ख्याल दिखा ही नहीं

समझ नहीं पाते, लिखें तो कहाँ से शुरुआत करें

अपनी, या जग की, या फिर जग और अपनी. किसकी बात करें

यही सोच कर शुरुआत भी नहीं कर पाते

शबों से दो दो हाट ही नहीं कर पाते

कुछ शुरू भी करें तो अधूरा रह जाता है

शब्द ही नहीं मिलते, ख्याल धुंधला रह जाता है

लिख के कुछ बन भी लें तो अच्छा नहीं लगता

शब्दों को कितना भी निचोड़ लें पर सोना नहीं निकलता

 

पर अगर खुद के लिए लिखें तो कैसा हो

कुछ लिखें, जिसे कोई पड़े नहीं जिसका कोई मोल ना लगाए

जो खुद को अच्छा लगे किसी और को समझ आये या ना आये

क्या लिख रहे हैं क्या नहीं इसकी चिंता ना हो

कुछ ऐसा जिसे कोई अच्छे बुरे मे गिनता ना हो

 

पर खुद को अच्छा लगे ऐसा क्या लिखें

एक अरसा हो गया खुद से बात ही नहीं हुई

इस कामकाज मे इतना खो गए के अपने आप से मुलाकात ही नहीं हुई

ठीक है, खुद को ढून्ढ लय फिर लिखेंगे

पर कुछ लिखेंगे, तभी तो खुद से मिलेंगे

ऐसा करते हैं, कुछ पल दुनियदारी से आंखें मूँद लेते हैं

कुछ लिखते कुछ मिटाते कहीं खुद को ढून्ढ लेते हैं

 

हाँ यही सही है, चलो फिर कुछ लिखते हैं

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