हर राह मुश्किल होती है

October 1, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

हर राह मुश्किल होती है, हर मोड़ पे कठिनाइयां मिलती है,
फिर भी पत्थरों से टकराती, हर बाधा को ध्वस्त करती, धारा बहती है,

जितने की ज़िद हमें आगे बढ़ने की हिम्मत देती है,
जीतना बहुत जरुरी है,पर हार हमें जीत की एहमियत बतलाती है,

मौका मिलेगा नहीं मांगने से, हमें जीवन से छीनना होगा,
जिनमे है तड़प कुछ कर गुजरने की,तक़दीर भी दोस्तों उन्ही की बदलती है,

डूब जाती है कुछ कश्तियाँ, कुछ तुफानो को चीर के पार होती है,
जो टकराते है सागर से साहिल की तरह,उनके लिए लहरें भी रास्ता देती है,

मज़िल है तो सफर भी होगा, सफर है तो संघर्ष भी होगा,
मुसाफिर आते है जाते है,जीवन की गाड़ी कहा किसी के लिए रूकती है,

कामयाबी कीमत मांगती है, शोहरत क़ुरबानी चाहती है,
चुनता है जो संघर्ष की डगर,कामयाबी भी उसी का माथा चूमती है,

सिकंदर न होता तो शायद मिलती न पहचान पोरस के साहस को,
झुका दे जो सिकंदर महान को अपने सहस के आगे,कहा ऐसे पोरस की मिसाल मिलती है,

हर राह मुश्किल होती है, हर मोड़ पे कठिनाइयां मिलती है,
फिर भी पत्थरों से टकराती, हर बाधा को ध्वस्त करती, धारा बहती है,

थकी सी ज़िंदगी

October 1, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

कुछ थकी थकी सी, कुछ रुकी रुकी सी हो गई है ज़िंदगी,
जी रहे हम सब यहां, पर जीवन से कहीं दूर हो गई है जिंदगी,
क्यूं हम खुद के प्रतिद्वंदी हो गए है, क्यूं खुद से हमारा द्वन्द है,
जिधर देखता हूं, जहा देखता हूं, परेशान सी है हर ज़िंदगी,

चारो तरफ शोर है, मगर फिर भी खामोश सी हो गई है ज़िंदगी,
हर तरफ भीड़ है, फिर भी तन्हा सी हो गई है यह ज़िंदगी,
कभी दूसरों के लिए लडे थे,आज खुद के लिए भी लड़ना नापसंद है,
धुआ ही धुआ हूं चारो और, बिना सांसों के घुटती जा रही है ज़िंदगी,

वक्त बदल गया, जमाना बदल गया, बदल सी गई है ज़िंदगी,
कामयाबी की ख़्वाहिश थी, पर कीमत चुका रही है ज़िंदगी,
हम जी लेंगे इस माहौल में, क्या अगली पीढ़ी के लिए मुकम्मल प्रबंध है,
संभल जा ए इंसान आज भी वक्त है, रेत सी फिसल रही है जिंदगी,

जीने के लिए संघर्ष था कभी, आज संघर्ष कर रही है ज़िंदगी,
प्रकृति से जीवन मिलता है, आज प्रकृति मांग रही है ज़िंदगी,
क्या हमारी अगली पीढ़ी को सांसे मिलेंगी, सोचिए यदि आप अकलमंद है,
आत्ममंथन कीजिए और सोचिए ,क्या बस यूं ही बीत जाएगी ज़िंदगी,

Nari Shakti

September 20, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

आज का यह समाज, चक्रव्यू है पुराने गले सढ़े रिवाजों का,
लड़ अभिमन्यु की तरह, अपनी सोच का समाज पे प्रहार कर,

सुन ली सब की आज तक, ना रहा वक्त अब लिहजो का,
खौफ से निकल, खुद से लड़ के खुद पर ऐतबार कर,

क्यूं तुझे है डर घूरती निग़ाहों का और लोगो के अल्फजो का,
सेहने की होती है हद्द कोई, अनसुना कर उन्हें जो कहते है सब्र कर,

किससे फरियाद करेगी, जब डर है अपने घर के बंद दरवाजों का,
अब ना रिश्तों का लिहाज कर, बचना है तुझे तो खुल के वार कर,

क्यूं चुप करवाते है लोग तुझे, क्यूं डर है इनको तेरी परवाजो का,
हार मान के जीना है या लड़ के मरना है, अब तू यह विचार कर,

जब तक खुद के लिए ना लड़ेगी तू, ना आयेगा दौर नए आगाजो का,
लक्ष्मी है घर की तू, पर दुर्गा भी है तू ही है यह स्वीकार कर,

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