पागल पथिक

January 8, 2023 in मुक्तक

मैं कहाँ था कहाँ से कहाँ आ गया
मैं जंहा था जहां से जंहा खो दिया
मंजिल थी मेरी कहि और पर
पर में खोया की मुझको पता ही न चला
मैं पथिक था जिस महा मार्ग का
वो कहा खो गया मैं पतित हो गया
मुझको पता न चला मैं कहा खो गया
मैं कह था कहा से कहा आ गया।
जो पथिक मेरे साथी थे वो भी नही
मैं हुआ अब अकेला और वो भी नही
मैं चरण था वो मेरी चरण पादुका
मैं कहानी था मेरी वो हर दुख कथा
मैं था पागल पथिक वो था एक रास्ता
था मुझको पता न क्या है ये वास्ता।
वो नदी था तो हम भी किनारे सही
वो गगन था तो हम भी थे सितारे सही
वो हिमालय तो हम भी तलहटी सही
वो घाव तो हम भी तो औषधि सही
वो जब श्रृंगार था तब हम अंगार थे
वो सृजन था तो हम भी तो संघार थे
वो माथा था तो हम भी कुम कुम सही
वो निवेदन तो हम भी तो इनकार थे
वो पायल तो हम उसकी झंकार थे
वो गम था तो हम भी तनहाई सही
वो ढोलक अगर तो हम सहनाई सही
वो प्रेम था तो हम भी करुणा सही
वो तो विशेष्य था हम भी तरुणा सही।
वो हंसी तो तो हम भी तो मुस्कान थे
वो तरकश था तो हम भी तो बाण थे
मैं कलम था वो मेरी स्याही सही
मैं था उपवन वो मेरी क्यारी सही
वो बादल था मैं उसका पानी सही
वो समंदर था मैं उसकी गहराई सही
वो था सूरज तो हम भी किरन पुंज थे
वो चंदा था तो हम भी हिमकुंज थे
वो था एक नींद हम भी तो सपने सही
हम दूर थे फिर भी अपने सही ।