गमछे रखकर के अपने कन्धों पर….

गमछे रखकर के अपने कन्धों पर….
गमछे रखकर के अपने कन्धों पर
बच्चे निकले हैं अपने धन्धों पर।

हर जगह पैसे की खातिर है गिरें
क्या तरस खाएं ऐसे अन्धों पर।

सारा दिन नेतागिरी खूब करी
और घर चलता रहा चन्दों पर।

अपना ईमान तक उतार आये
शर्म आती है ऐसे नंगों पर।

जितने अच्छे थे वो बुरे निकले
कैसे उंगली उठाएं गन्दों पर।

जिन्दगी कटती रही, छिलती रही
अपनी मजबूरियों के रन्दों पर।
……..सतीश कसेरा

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Responses

  1. I’m sorry sir…lekin mujhe lagta he jis ki bache jinke baare me aapne kavita likhi he…vo sab apne haalato ke kaaran esa karte he… I’m not getting meaning of ‘शर्म आती है ऐसे नंगों पर।’…what do you want to say…that it is shame on their part that they are doing such things…or it is shame for the civilized society where children are required to do such things because of discriminatory system that persist in our society.
    Please clear the point…it may be possible that I misunderstood your words

    1. हैलो मोहित, आप शायद गजल को सही प्रकार से समझ नहीं पाये। गजल का हर शे’र अपना अलग दर्द ब्यां करता है, गमछे रखकर के अपने कन्धों पर…शे’र का ईशारा उन बच्चों की तरफ है जिनको मजबूरी के कारण बचपन में काम करना पड रहा है। हर जगह पैसे की खातिर है गिरे..शे’र का ईशारा उन लोगों के लिये है जो पैसे की खातिर कहीं भी, कितना भी नीचे गिर सकते हैं। सारा दिन नेतागिरी खूब करी..का ईशारा उन लोगों की तरफ है जिन्होंने राजनीति को अपना धंधा बना रखा है। इसी तरह से अपना ईमान तक उतार आये, शर्म आती है ऐसे नंगों पर…का ईशारा उपरोक्त बच्चों की ओर नहीं बल्कि उन लोगों की तरफ है जो अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये अपने दीन—ईमान से गिर जाते हैं, अपने जमीर रुपी कीमती लिबास को बेचकर नंगे होने में भी शर्म महसूस नहीं करते। पूरी गजल में केवल पहला शे’र ही मजबूर बच्चों से संबंधित हैं।

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