पसीना भी हर इक मजदूर का………….
कभी दीवार गिरती है, कभी छप्पर टपकता है
कि आंधी और तूफां को भी मेरा घर खटकता है।
चमकते शहर ऐसे ही नहीं मन को लुभाते हैं
पसीना भी हर इक मजदूर का इसमें चमकता है।
गए परदेस रोटी को तो घर सब हो गए सूने
कहीं बिंदियां चमकती है न अब कंगन खनकता है।
यूं ही होते नहीं है रास्ते आसान मंजिल के
सड़क बनती है तो मजदूर का तलवा सुलगता है।
ये अपने घर लिये फिरते हैं सब अपने ही कांधों पर
नहीं मालूम बसकर फिर कहां जाकर उजड़ता है।
—————-सतीश कसेरा
Shaandaar
Thanks Ankit Tiwari
aapki kavita ki taarif me kya kahe
lafzo se aapne kya racha he kya kahe
Thanks Kapil Singh
यूं ही होते नहीं है रास्ते आसान मंजिल के
सड़क बनती है तो मजदूर का तलवा सुलगता है।…bahut khoob satish ji
Good
वाह
अतिसुन्दर