मित्रपद विराजित हो
श्रीदरूप हो तुम,
मित्रपद विराजित हो
बस सदा ही खिलते रहो
मण्डली में शोभित हो।
श्रोतव्य है मीठी वाणी तुम्हारी
बिंदास चेहरे की मुस्कान न्यारी।
सदोदित रहें सारी खुशियाँ तुम्हारी,
सुस्मित रहे मन, दुख सब विलोपित हों।
संविग्न मत होना, संशय न रखना,
मित्रता निभाएंगे लोभ-मद रहित हो।
Very nice line
बहुत बहुत धन्यवाद प्रज्ञा जी
Very nice
बहुत सारा धन्यवाद जी
बहुत सुंदर
सादर धन्यवाद जी
अतिसुंदर भाव
सादर नमस्कार जी
बहुत ही सुंदर
बहुत धन्यवाद
बहुत ख़ूबसूरत रचना है मित्रता पर ।अतिसुंदर भावनाएं ।
मित्रता पर इतनी अनूठी रचना आपकी विलक्षण प्रतिभा को दर्शाती है…लेखनी को प्रणाम ।🙏🙏
बहुत ही सुंदर समीक्षा, आपको हार्दिक अभिवादन , इतनी सुंदर समीक्षा शक्ति को प्रणाम। धन्यवाद गीता जी
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति
बहुत बहुत धन्यवाद सुमन जी
बहुत खूब पाण्डेय जी
सादर नमस्कार
बहुत ही बढ़िया
बहुत बहुत धन्यवाद