वो डरावना-सा बचपन
सब चाहते हैं,
फिर से वो बचपन पाना,
शरारत से भरी ऑंखें,
और मुस्कुराना,
पर मैं नही चाहती,
वो बचपन पाना,
डर लगता है,
उस बचपन से,
घूरती आँखों,
और उन हैवानों से,
अब है हिम्मत,
हैं डर को जितने का दम,
तब नहीं था, वो मेरे भीतर,
डरती थी, सहमती थी,
बंद कमरे में , सिसकती थी,
चाहती थी, खुलकर हंस सकूँ,
पर न कुछ कह पाना न समझ पाना,
रोना याद कर उन लम्हों को,
और खुद को सजा देना,
मैं नही चाहती वो बचपन पाना,
जहाँ छिनी जाती थी,
पल पल मेरी खुशियां,
जोड़ती थी साहस, की खुद को है,
बचाना,
बचाया खुद को मैंने,
कभी वक़्त ने साथ दिया, कभी दूरियों ने,
कभी अपनों ने, कभी परायो ने,
कोमल मन पर , वो डर का साया,
मैं नही चाहती वो बचपन दोहराना।।।।
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Geeta kumari - September 1, 2020, 5:39 pm
मासूम बचपन की संजीदा रचना
प्रतिमा चौधरी - September 1, 2020, 5:41 pm
बहुत बहुत धन्यवाद
Priya Choudhary - September 1, 2020, 6:46 pm
बेहद भावपूर्ण और विचारणीय कविता👍👍
प्रतिमा चौधरी - September 2, 2020, 2:44 am
बहुत बहुत धन्यवाद।
Prayag Dharmani - September 1, 2020, 7:35 pm
भावपूर्ण रचना
प्रतिमा चौधरी - September 2, 2020, 8:36 am
Thank you
मोहन सिंह मानुष - September 1, 2020, 7:58 pm
बहुत ही मार्मिक और भावपूर्ण
प्रतिमा चौधरी - September 2, 2020, 8:36 am
Thank you
Sulekha yadav - September 1, 2020, 8:23 pm
beautiful poem
प्रतिमा चौधरी - September 2, 2020, 8:37 am
Thank you
Praduman Amit - September 2, 2020, 1:31 am
आपकी कविता नारी की प्रतिमा को जीवंत चित्रण करती है प्रतिमा जी।
प्रतिमा चौधरी - September 2, 2020, 8:37 am
धन्यवाद
Pt, vinay shastri 'vinaychand' - September 2, 2020, 1:51 pm
sunder
प्रतिमा चौधरी - September 2, 2020, 2:10 pm
Thank you sir
Deep Patel - September 24, 2020, 11:09 am
nice poem
प्रतिमा चौधरी - September 24, 2020, 1:35 pm
Thank you