“कटी पतंग”
पहले रहती थी
खिलखिलाती मुस्कुराती मैं कली
फिर आया एक भंवरा
मेरे सम्मुख हे अली !
पी लिया उसने मेरे जीवन का
सारा रस अली
मुस्कुराती कली फिर
सिसकते हुए रोने लगी
मेरे जीवन की जो खुशियां थीं
वो सब ले गया
एक बेजान-सा बस जिस्म ही
अब रह गया
जो ना मरता, जो ना मिटता
वो मन भी अब बुझ गया
रंग जितना मुझमें था
वह रंग सारा उड़ गया
मेरा जीवन अब तो है बस
एक कटी पतंग-सा*
धुल रही हूँ जख्म़ सारे
हो रहा है दर्द-सा…
विशेषता:-
यह रचना मेरे जीवन का सत्य प्रकट करती है
एक ऐसा सत्य जिसे मैं स्वीकार नहीं करना चाहती..
बहुत सुंदर, दर्द की बेहतरीन अभिव्यक्ति,
धन्यवाद
एक विरहणी के ह्रदय का सम्पूर्ण दर्द उड़ेल दिया है, कवि प्रज्ञा जी ने अपनी इस कविता के माध्यम से , वियोग पक्ष का बहुत ही मार्मिक चित्रण। हृदय स्पर्शी रचना
धन्यवाद दी…
सच्चाई कड़वी तो होती है। मगर इससे कौन बच पाया है। इंसान हर दिन किसी न किसी सच्चाई की सामना करते है। जबकि वही होता है जो किस्मत में लिखा होता है।
सही कहा सर…
अतिसुंदर